STORYMIRROR

Prabodh Govil

Others

4  

Prabodh Govil

Others

मैं और मेरी जिंदगी -52

मैं और मेरी जिंदगी -52

10 mins
271

अचानक दिल का दौरा पड़ने से मेरी पत्नी की मृत्यु विश्वविद्यालय के जिस सभागार में हुई थी उसे विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हीं को, अर्थात अपनी पहली वाइस चांसलर को समर्पित कर दिया और उसका नाम भी उनके नाम पर ही रख दिया गया।

इसके बाद कई वर्ष तक उनकी स्मृति में हर साल एक कार्यक्रम का आयोजन भी किया जाने लगा जिसमें देश भर से किसी भी एक विशिष्ट व्यक्ति को आमंत्रित करके उनका विशेष व्याख्यान विद्यार्थियों के बीच आयोजित किया जाता।

क्योंकि ये "मेमोरियल लेक्चर" होता था अतः ये प्रयास किया जाता कि इस व्याख्यान के लिए उनके किसी समकक्ष वैज्ञानिक अथवा सहकर्मी को बुलाया जाए। इस मौक़े पर उनकी स्मृति में विशिष्ट उपलब्धि पर विद्यार्थियों को पुरस्कृत भी किया जाता।

एक दिन मैं अपने कार्यालय से लौट रहा था कि मेरे पास जनसतर्कता समिति के प्रदेश अध्यक्ष का फ़ोन आया और उन्होंने मुझसे कहा कि वो तत्काल मुझसे मिलना चाहते हैं। मैंने गाड़ी का रुख उनके आवास की ओर मोड़ देने के लिए ड्राइवर को कहा।

हम दोनों के बीच लगभग बीस मिनट बात हुई। इस बीच उनके पास राज्य के पूर्व डीआईजी का फ़ोन आया और उन्होंने उनकी थोड़ी बातचीत मुझे भी सुनवा दी।

मुझे ये जानकर आश्चर्य हुआ कि प्रदेश अध्यक्ष विश्वविद्यालय में घटी उस घटना की अपने स्तर पर जांच करवाना चाहते थे जिससे मेरी पत्नी का सार्वजनिक समारोह के दौरान निधन हो गया था, और मुझसे कह रहे थे कि वो जिस अधिकारी को इस काम के लिए नियुक्त कर रहे हैं मैं उनकी जांच में मदद करूं।

मुझे ये प्रस्ताव अटपटा सा लगा क्योंकि मैं तो इसे नियति का खेल मान कर अब व्यवस्थित होने लगा था।

किन्तु मैं ये भी जानता था कि मेरा इस प्रस्ताव के लिए मना करना उन्हें अच्छा नहीं लगेगा और कहीं वे ये ही न सोचने लगें कि मैं क्यों जांच के लिए मना कर रहा हूं।

फिर भी मैंने एक बीच का रास्ता निकालते हुए उन्हें सलाह दी कि वो मुझ पर विश्वास करें और मुझे थोड़ा सा वक़्त दें। मैं ख़ुद ये जांच करूंगा और हादसे की मिनट दर मिनट रिपोर्ट आपको दूंगा।

उन्होंने मेरी बात मान ली। वो मुझ पर बहुत भरोसा करते थे।

मैं जब उनके घर से निकला तो मैं इस बात पर हैरान था कि ये आइडिया आखिर मुझे क्यों नहीं सूझा। एक स्वस्थ, सक्रिय, कर्मठ उच्च पदस्थ महिला सहसा एक सार्वजनिक समारोह में दिवंगत हो गई तो आखिर इसकी भौतिक, सामाजिक, व्यक्तिगत वजह जानने की कोशिश तो होनी ही चाहिए।

जबकि वो महिला कोई और नहीं, बल्कि ख़ुद मेरी धर्मपत्नी थी।

अगले ही दिन से ये मेरा मिशन हो गया कि मैं इस घटना के चौबीस घंटे पहले से हुए घटना क्रम को रेशा रेशा खंगाल डालूं।

यद्यपि डॉक्टर ने मेरी पत्नी के मृत्यु प्रमाण पत्र में मौत का कारण स्पष्ट रूप से "कार्डियक अरेस्ट" लिखा था पर मुझे अब कार्डियक अरेस्ट का कारण खोजना था।

मैंने पत्नी के फ़ोन, संदेशों आदि की भी पूरी डिटेल्स प्राप्त कर ली। वाइस चांसलर के निजी सहायक व कुछ अन्य स्टाफ से भी इस बाबत कुछ जानकारी मिली।

मैंने विश्वविद्यालय के सिक्योरिटी स्टाफ, सभी वॉचमैन, अधिकारियों, अधीनस्थ कर्मचारियों, ड्राइवर्स, कार्मिकों, मालियों, कैंटीन कर्मियों, मैस स्टाफ, कुछ शिक्षकों और कुछ विद्यार्थियों से अपने तरीक़े से अलग- अलग उन्हें विश्वास में लेकर समय - समय पर बातचीत की और कुछ सप्ताह में ही मेरे सामने उस दिन का संभावित घटना चक्र घूम गया।

इस नए विश्वविद्यालय में नए- नए विद्यार्थियों के साथ- साथ नए शिक्षकों का आना भी जारी था। कुछ दूसरी जगहों से सेवानिवृत्ति शिक्षक भी यहां आए थे क्योंकि उनके पूर्व संस्थानों में और यहां सेवानिवृत्ति की आयु में अंतर था।

इन्हीं में एक बुज़ुर्ग शिक्षक भी थे जो कभी यहां की इन कुलपति महिला के शिक्षक भी रहे थे।

वे उन्हें उनके पूर्व शिक्षक होने और बुज़ुर्ग होने के नाते सम्मान दिया करती थीं। अक्सर अपने साथ ही कार में उन्हें बैठा लाना और अपने ही चैंबर में भोजन करते समय उन्हें भी भोजन हेतु आमंत्रित कर लिया करती थीं। वे अब इन सुविधाओं के अभ्यस्त हो चले थे।

नया सत्र आरंभ होने की पूर्व संध्या पर विश्वविद्यालय परिसर के नियम सभी विभागों को वितरित हुए और उन पर सख़्ती से अनुपालन के निर्देश भी दिए गए।

परिसर शहर से दूर कुछ एकांत में अवस्थित था और छात्रावासों में लड़कियों की खास सुरक्षा सुनिश्चित की गई थी ताकि उनके दूर - दूर नगरों में रहने वाले अभिभावक - गण पूर्ण आश्वस्त होकर उन्हें यहां भेज सकें।

जिस दिन सत्रारंभ का समारोह होना था, उस दिन उन बुज़ुर्ग शिक्षक को ये संदेश दिया गया कि आज वे शाम के समय ही परिसर में आ जाएं ताकि कल की तैयारी में रात को देर तक रुकने में भी उन्हें परेशानी न हो।

जब वे आए तब तक सभी नियम वितरित होकर संबंधित विभागों में पहुंच चुके थे।

इनमें एक नियम ये भी था कि अब सभी कारें परिसर में भीतर तक नहीं जाएंगी। केवल अध्यक्ष (कुलपति) की कार ही उनके कार्यालय चैंबर तक भीतर जा सकेगी। शेष सभी को गाड़ी पार्किंग में रख कर ही भीतर जाना होगा।

जब वे शिक्षक आए तो नियमानुसार उनकी कार को पार्किंग पर रोका गया।

इसे उन्होंने अपना अपमान समझा और सीधे कुलपति को फोन कर दिया। कुलपति ने उन्हें समझाने की कोशिश की और नियम का मान रखने के लिए पैदल चल कर ख़ुद बाहर आईं ताकि उनके साथ गाड़ी में बैठें और नियमानुसार गाड़ी भीतर जा सके।

यही प्रकरण शाम को भोजन के समय हुआ जब मैस से भोजन भेजने की मांग पर उन्हें कहा गया कि आप मैस में आकर ही भोजन करें।

वे उखड़ गए। उन्हें लगा कि सत्र शुरू होते ही उनकी अवहेलना हो रही है। उन्होंने कुलपति से कहा कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है, और वो घर जा रहे हैं। जाते जाते वे ये भी कह गए कि शायद वो कल न आ पाएं।

ये एक बड़ा झटका था क्योंकि उद्घाटन समारोह में स्वागत भाषण उन्हीं को करना था जिसकी समस्त तैयारी उन्होंने कई सप्ताह पहले से पूरी रूपरेखा, कार्यक्रमों, नीतियों आदि को लेकर की थी। उनका कोई विकल्प भी नहीं था क्योंकि अगली सुबह ही कार्यक्रम होना था।

कुलपति ने मैस से आया हुआ अपना भोजन भी लौटा दिया और इस नई स्थिति से निपटने की दुविधा में व्यस्त हो गईं।

गेस्ट हाउस के अपने कक्ष में रात ढाई बजे तक अपने कंप्यूटर पर उन्होंने काम किया और शाम से अब तक कुछ खाना तो दूर, एक बूंद जल तक ग्रहण नहीं किया। "कोई उनकी मदद नहीं कर सकता था क्योंकि द्रोणाचार्य ने नाज़ुक वक़्त में अपने शिष्य का अंगूठा मांग लिया था।"

अगली सुबह छह बजे उठते ही बेड टी के साथ बिस्किट को वापस प्लेट में रख देना पड़ा, क्योंकि तभी हवन की तैयारी के लिए आए पंडित जी ने उनसे थोड़ा समय मांग लिया। उसके बाद उन्हें नहा धोकर तैयार होने और हवन- पूजा में उपस्थित होने के बीच कुछ भी खा पाने का न तो वक़्त मिला, और न इच्छा!

हवन के बाद समारोह शुरू हो गया। उन्होंने दीप प्रज्वलन करके अपना उद्बोधन शुरू किया ही था कि उन्हें माइक पर ही खड़े - खड़े दौरा पड़ा और वो अचेत हो गईं। वीडियोग्राफी- फोटोग्राफी कर रहे व्यक्तियों ने कैमरे छोड़ कर उन्हें संभाला और अफरा तफरी मच गई। उन्हें हस्पताल लेे जाया गया किन्तु रास्ते में ही उन्हें "दुनिया" नाम के सबसे बड़े रोग से मुक्ति मिल गई।

ये तो जनसतर्कता समिति के लिए की गई मेरी जांच के नतीजे थे, किन्तु क्योंकि दुनिया छोड़ जाने वाली वैज्ञानिक सोच की वो कर्मठ और मेधावी महिला मेरी धर्मपत्नी थीं, इसलिए मैं आपको अपनी कल्पना से वो चंद बातें भी बता दूं जो रात को ढाई से सुबह छह बजे तक की साढ़े तीन घंटे की बिना अन्नजल लिए कटी नींद में उन्हें विचलित करती रही होंगी।

ये नींद क्या, बस यादों के तरणताल में नीम बेहोशी की अवस्था में उनका हिचकोले खाते हुए डूबना उतराना ही रहा होगा।

क्योंकि चंद दिन पहले तक वो उस संस्थान में थीं जहां वो अपनी पूरी पढ़ाई करके उसी के एक उच्च पद तक पहुंची थीं और अपनी उपलब्धियों के बीच वो अपने पूरे परिवार, बच्चों, माता- पिता, सास, पति... मित्रों आदि सहित रही थीं और आज उनकी इतनी बड़ी उपलब्धि पर घर परिवार से कोई भी उनके साथ नहीं था।

बेटे के अमेरिका चले जाने के बाद से उन्हें लगता था कि वहां से पढ़ कर उसे नौकरी भी वहीं मिलेगी, और वो वापस यहां आना, जाने पसंद भी करेगा या नहीं!

बेटी के विवाह के बाद से उन्हें लगता था कि अब उसकी नौकरी गुजरात में और ससुराल ओड़िशा में है। अव्वल तो नौकरी में उसे ज़्यादा वक़्त मिलेगा ही नहीं, जो थोड़ा बहुत मिला भी तो हर बार उसका मन दो विपरीत दिशाओं में जाने के लिए बंटा रहेगा।

और सबसे बड़ी बात...लंबे समय तक काम और मेहनत करके लोग इसलिए एक ऐसा मुकाम बना लेते हैं ताकि जीवन की सांझ में उन्हें आराम की गरिमामय दिनचर्या मिले, किन्तु हम दोनों पति- पत्नी ने करियर के इस सोपान पर अपनी जगह बदल कर फ़िर से अपने को एक नया खेत जोतने के लिए झौंक दिया, जहां अपने आप को सिद्ध करने के लिए फ़िर से रोज़ नई चुनौतियां झेलनी होंगी? पिछली उपलब्धियां, पिछले संबंध, पिछली अनुभूतियां सब केवल कागज़ों में दर्ज़ रहने वाले सनद- दस्तावेज बन जाएंगे!

और ज़माना ऐसा आ चुका था कि "आपने किया होगा कुछ भी, हमें क्या, हमारा काम कर दो तो जानें"! ये कहानी केवल संस्थानों की नहीं, अब घर- घर की बनती जा रही थी।

लोग सोचते थे कि अब माता - पिता वेतन नहीं, पेंशन लाते हैं, तो हमें क्या देंगे? रही बात किसी के जीवन के अनुभवों से कुछ सीखने की, तो अपने जीवन से सीखेंगे न, आपके जीवन से क्यों?

ठीक भी है, कोई किसी दूसरे की बुद्धि से सीखे तो ख़ुद अपनी अक्ल का क्या करे?

अखिल भारतीय साहित्य परिषद का राष्ट्रीय पुरस्कार अपने कहानी संग्रह "थोड़ी देर और ठहर" पर मिल जाने के बाद कुछ पत्र - पत्रिकाओं द्वारा मुझसे कहानी की मांग की गई। इस हलचल में कुछ नई कहानियां लिखी भी गईं।

इन कहानियों पर बात करने से पहले एक मज़ेदार किस्सा आपको सुना दूं।

विश्वभारती शांति निकेतन की एक प्रखर और प्रतिबद्ध साहित्य शिक्षिका एक दिन मुझसे मिलने आईं।

बोलीं- आपकी किताब "थोड़ी देर और ठहर" पढ़ने के बाद से समझ नहीं पा रही कि मैंने अब तक ये कहानियां क्यों नहीं पढ़ीं। ख़ैर, अब पढ़ ली हैं, और मैं अपने कुछ शोधार्थियों से इन पर काम तो करवाऊंगी ही, एक- दो बड़ी पत्रिकाओं के लिए मैं इनकी समीक्षा भी कर रही हूं। सर, निवेदन था कि यदि आपसे कुछ चर्चा- परामर्श की ज़रूरत पड़ी तो प्लीज़, समय निकालिएगा।

मैं क्या कहता, मन में सिर्फ़ इतना सोच कर रह गया- अब भी निकाला ही है न?

दो- चार दिन बाद वो फ़िर आईं। आते ही बोलीं- अभी तो दूसरे काम से अाई हूं सर, मुझे पता है कि आपके संस्थान में बहुत से ग्रामीण विद्यार्थी आते- जाते रहते हैं, मैं अब क्योंकि राजस्थान छोड़ कर जा रही हूं, उनके लिए आपको कुछ तो दे कर ही जाऊंगी।

मैंने ख़ुश होकर कहा, स्वागत है।

वो ये भी बोलीं कि बिल्कुल मुफ़्त में तो नहीं, किन्तु कुछ नॉमिनल से अमाउंट पर वो ये चीज़ें देंगी।

मैंने अपने संस्थान में उन दिनों प्रबंधक के रूप में काम कर रहे युवक के पास उन्हें भेज दिया। साथ ही ये भी कह दिया कि हिसाब वही देखता है, जो भी राशि हो, उसे ही दे जाएं।

वो चली गईं।

मैं बात को भूल गया। कुछ दिन बाद जब मैंने कुछ शिक्षकों से सुना, वाह सर, आपने तो छात्रों के लिए पुराना सामान भी अच्छे- खासे पैसे देकर खरीद लिया, तो मेरी चेतना जागी।

मुझे ये तो कभी नहीं पता चल सका कि उन मोहतरमा के शोधार्थी कौन थे, कहां के थे, और अब वो खुद कहां थीं, किन्तु ये ज़रूर मालूम पड़ गया कि उन्हें पढ़ने के लिए दी गई मेरी किताब वो अपनी एक सहेली को इस टिप्पणी के साथ वापस दे गई हैं कि " मैं तो पढ़ ही नहीं पाई, तू रख ले!"

उन दिनों राजस्थान पत्रिका में मेरी कुछ कहानियां छपीं, और हर साल पत्रिका द्वारा दिया जाने वाला इक्कीस हज़ार रुपए का सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार मेरी कहानी को दिया गया।

इसके बाद मेरी कहानियों के अंग्रेज़ी अनुवाद की किताब "हार्मोनल फेंसिंग" छपी।

इन दिनों लिखी गई नई कहानियों की एक किताब कुछ पुरानी कहानियों के साथ "ख़ाली हाथ वाली अम्मा" शीर्षक से भी छपी।

कभी- कभी कहते हैं कि बिल्ली के भाग से छींका टूटा। ऐसा ही हुआ, कहानियां तो जैसी थीं वैसी थीं किन्तु अपने शीर्षक के चलते किताब को अच्छी खासी लोकप्रियता मिली। न जाने क्यों, ये शीर्षक लोगों की ज़बान पर चढ़ गया।

बाद में इसका विमोचन नेपाल में एक कार्यक्रम में हुआ।



Rate this content
Log in