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Prabodh Govil

Others

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Prabodh Govil

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मैं और मेरी जिंदगी -15

मैं और मेरी जिंदगी -15

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मुझे लगता है कि अपने भाई- बहनों से अपने रिश्तों के बारे में भी कुछ बात होनी ही चाहिए।

ये कितना चमत्कारिक है कि आपके भाई बहन भी उसी मिट्टी के बने हुए होते हैं, जिसके आप। आरंभिक दौर के जो निवाले आपने खाए, वही उन्होंने। जो हवा पानी धूप साया आपको मयस्सर हुआ, वही कमोवेश उन्हें भी।

लेकिन फिर भी एक मुकाम ऐसा ज़रूर आता है जहां से कुछ सुस्त कदम रास्ते, कुछ तेज़ कदम राहें उन्हें आपसे अलग कर देते हैं।

मन से भी, तो परिवेश से भी।

मैं अपने सबसे बड़े भाई को अपने से सबसे नज़दीक पाता था। इसके कई कारण थे। एक बड़ा कारण तो ये था कि वो मुझसे लगभग चौदह साल उम्र में बड़े थे, इसलिए मेरे ठीक से होश संभालने से पहले ही वे अपनी पढ़ाई के सिलसिले में दूर पास आते - जाते रहे, बाद में उत्तर प्रदेश से पढ़ाई पूरी करके उनकी सर्विस राजस्थान में लगी तो मैं राजस्थान से बाहर निकल गया। फिर भी मेरी स्कूल कॉलेज की पढ़ाई के समय मुझे काफ़ी दिन उनके साथ, उनके पास रहने का मौका मिला।

कभी कभी भीतर से मुझे ऐसा लगता था कि वो मुझे बहुत बुद्धिमान और संवेदन शील मानते थे और इसी कारण स्नेह और सम्मान देते थे। मुझे कई ऐसे अवसर याद हैं जब उन्होंने मुझे "ओवर एस्टीमेट" किया हो।

उनसे छोटे तीन भाइयों में मैं बीच का होने के कारण ये पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि कई बार उन्होंने एक सी स्थिति होने पर भी मेरे अन्य भाइयों की तुलना में मेरा पक्ष लिया होगा। कोई निष्पक्ष बुद्धिजीवी शायद कह दे कि इसमें मेरी भी कोई भूमिका रही होगी।

मैं मन से उन्हें बहुत करीब पाता था। वे अन्यथा भी बहुत सीधे सरल स्वभाव के स्वामी थे। इसका एक नैसर्गिक कारण ये भी था कि उन्होंने बहुत छोटी अवस्था में अपनी माता का स्नेह आंचल छोड़ दिया था, और आरंभ से ही अधिकतर हॉस्टल में रह कर पढ़े थे।

हमारी माताएं अलग थीं।

मेरे प्रति उनकी अत्यंत आत्मीयता ने उनका विवाह होने के बाद उनकी पत्नी, अर्थात मेरी भाभी के मन में भी मेरे लिए अतिरिक्त अपनापन भर दिया था। मैं अपनी भाभी से भी निकटता से जुड़ा हुआ था। मुझे बचपन और किशोरावस्था के कई वर्ष उनके साथ गुजारने का अवसर मिला।

उनसे लगभग छह वर्ष छोटी मेरी बड़ी बहन थीं। मुझसे छोटा भाई मुझसे दो वर्ष से भी कम अंतर से छोटा होने के कारण मैंने अपनी माता की गोद भाई बहनों के लिए सबसे कम अवधि में खाली कर दी थी, इसलिए बचपन में एक शिशु के रूप में अपने कामकाज और देखभाल के लिए अपनी माता जी से भी ज़्यादा इन बड़ी बहन जी से ही मैं जुड़ा था।

दूसरे, ये हिंदी साहित्य की विद्यार्थी भी रहीं। तो अधिकांश हिंदी साहित्यकारों को आरंभिक दिनों में ही पढ़ लेने का सौभाग्य मुझे अपनी बड़ी बहन के कारण ही मिला। इनकी पुस्तकों की अलमारी में कई उपन्यास, कहानियां, नाटक आदि मुझे मिल जाते थे। जिन्हें लाइब्रेरी में वापस करने से पहले मैं भी पढ़ पाता था।

मुझे उनकी अपनी सहेलियों से होने वाली बातों से पुस्तकों के बारे में बहुत सी जानकारी मिलने से मैं तय कर पाता था कि मुझे कौन सी किताब पढ़नी है।

बचपन में वे हिन्द पॉकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना की सदस्या भी थीं, जिससे नई नई किताबों की जानकारी मुझे भी मिलती रहती थी। मैं दावे से कह सकता हूं कि साहित्य अध्ययन की ये सुविधा कई साहित्य के विद्यार्थियों को तो बी ए तक में नहीं मिल पाती थी।

एक बात और! मेरे कुछ मित्र कहा करते थे कि किसी लड़के के शरीर में बलिष्ठता, खिलंदड़ा पन, फुर्ती, शरारत आदि गुण अपने भाइयों से आते हैं, पर विनम्रता, करुणा, जिजीविषा, संवेदन शीलता, धैर्य या बुद्धिमत्ता आदि गुण अपनी बहनों से आते हैं। यदि ऐसा है तो मेरे व्यक्तित्व की बहुत सारी बातों का श्रेय निस्संदेह मेरी इन दीदी को दिया जा सकता है।

इस बहन से चार साल छोटे भाई मेरे मझले भाई हैं। इनके साथ मेरे रिश्ते जानने समझने के लिए " हिंदी साहित्य के अमर कथाशिल्पी" प्रेमचंद का सहारा लिया जा सकता है। प्रेमचंद की कहानी "बड़े भाईसाहब" हमारा साठ प्रतिशत किस्सा बयान करती है।

इनसे मेरा रिश्ता कुछ जटिल रहा। वहां जितना सहयोग, साथ है, उतना ही अविश्वास और संदेह भी। ये बात मैं किसी व्यंग्य या अनादर से नहीं कह रहा हूं। बल्कि मुझे तो लगता है कि रहीम ने जो कहा है कि - "कह रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग..." इसी में हम दोनों के आपसी रिश्ते का मर्म भी छिपा है। मैं अपने को उनके केले के पत्ते जैसे पावन नर्म और मुलायम सोच की तुलना में कंटीली झाड़ियों जैसा ही पाता हूं। यदि मेरी जगह वो और उनकी जगह मैं भी होता तो भी हमारा ये रिश्ता वैसा ही होता, जैसा कि अभी है।

दरअसल वो पढ़ाई में कभी बहुत अच्छे नहीं रहे।

और ये उनका दोष नहीं है। बल्कि हमारी शिक्षा प्रणाली ही ऐसी है कि ये कोई सार्वभौमिक दृष्टि नहीं देती। इसे न तो ईश्वर ने ही बनाया है और न ही ये ऐसी नैसर्गिक है कि श्रेष्ठ को श्रेष्ठ घोषित कर सके।

लेकिन पढ़ाई को लेकर घर और विद्यालय में शायद हम दोनों भाइयों की तुलना होती रही और बड़े भाई अकारण हारते रहे।

फिर एक बात और दुर्भाग्य वश घट गई। बड़े भाई को आरंभ से ही बोलने में थोड़ा अटकने या हकलाने की परेशानी हो गई।

इससे हुआ ये कि जब हम दोनों साथ होते तो उनकी इस कठिनाई से उन्हें बचाने के लिए लोग मुझसे ही बात करते, जो पूछना होता वो मुझसे पूछते। जो बताना होता वो मुझे बताते।

इस बात ने आरंभ से ही उनके मन में हीन भावना की एक ग्रंथि भर दी, जिससे वो अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे।

जब हमारा दाखिला घर से एक दस किलोमीटर दूर के स्कूल में हुआ तो मुझे साइकिल चलाना न आने के कारण वे ही मुझे हमेशा साइकिल पर बैठा कर लाया ले जाया करते थे।

किन्तु पढ़ाई में अच्छा होने के कारण जब परीक्षा में मेरे अंक उनसे बेहतर आते तो हमारी तुलना करके मुझे श्रेष्ठ ठहरा दिया जाता। उस वक़्त उनके मन में मेरे प्रति ये घुटन भरा भाव ज़रूर आता होगा कि मुझे जो सहूलियत उनके कारण मिलती थी, वो खुद उन्हें सुलभ नहीं थी।

इस तरह बहुत छोटी आयु से ही हमारे बीच एक दूरी बन गई।

कभी कभी इससे एक दिलचस्प स्थिति भी बनी। एक बार स्कूल में किसी बात पर कुछ लड़कों को सज़ा मिली।

मेरे बड़े भाई के मित्रों ने मेरे भाई से कह दिया कि शायद मैंने ही प्रधानाध्यापक जी से उन लड़कों की शिकायत की है क्योंकि जब वे सब क्लास छोड़ कर स्कूल के एक बगीचे में चले गए थे तब मैं किसी काम से गेट के पास ही था।

भाई ने आव देखा न ताव, लड़कों की बातों में आकर मेरी क्लास में आ गए। दरवाज़े पर ही गुस्से से मेरे लिए पूछते हुए वे भीतर मेरी ओर बढ़े। मैं तब अपने मित्रों के साथ अपनी जगह पर बैठा था। शायद लड़कों ने उनके तेवर देखकर भांप लिया कि वो मुझे डांटने या मारने आए हैं।

लड़कों ने तत्काल मेरे चारों ओर गोल घेरा बना लिया और उनसे बोले- घर जाकर चाहे जो करना, पर यहां हम अपनी क्लास में इसे कुछ नहीं कहने देंगे, हाथ लगाना तो दूर।

वे बौखलाए हुए लौट गए। छुट्टी होने पर वे ही मुझे अपने साथ साइकिल पर बैठा कर घर लेकर गए। तब रास्ते में मैंने उन्हें समझाया कि मैंने किसी की कोई शिकायत नहीं की और न ही मुझे इस बारे में कुछ पता है कि किसे, किस बात पर, किससे सज़ा मिली।

मेरे ये भाई पढ़ाई में अपनी कमी को गीत और कविता लिखने के माध्यम से पूरी कर लेते थे। ये भी हैरानी की बात थी कि वो जिस तरह बोलते समय अटकते थे, गाते समय बिल्कुल भी नहीं अटकते थे।

मुझसे छोटा भाई दो साल छोटा था। उसका और मेरा स्वभाव बिल्कुल अलग था। वह एक औसत विद्यार्थी था, पर खेल कूद में आगे रहता था।

बाद के दिनों में हम दोनों का स्कूल भी अलग हो गया था। उसे छात्र राजनीति आदि में ज़रा भी रुचि नहीं थी। किन्तु एक बार उनके स्कूल में छात्र संघ के अध्यक्ष का चुनाव होने पर उनके स्कूल का एक उम्मीदवार छात्र अपने प्रचार के लिए मुझे अपने साथ लेकर गया तो उसे इस बात पर गहरी हैरानी हुई कि मेरी पकड़ उसके स्कूल के लड़कों पर भी है।

हम दोनों को घर में बराबर जेब खर्च मिलता था, पर वो मस्तमौला तबीयत का होने से अपने पैसे तत्काल खर्च कर देता। बाद में जब उसे पता चलता कि मेरे पास पैसे हैं तो उसे अचंभा होता। कभी कभी वो मुझसे मांगता भी था।

एक दिन उसका अपनी क्लास के लड़कों के साथ फ़िल्म देखने का मूड बन गया। सब लड़के अपनी अपनी टिकट के पैसे अपनी जेब से दे रहे थे। किन्तु उसके पास पैसे नहीं थे।

वो तीन किलोमीटर दूर से साइकिल से अपने मित्रों को भी साथ लेकर मेरे स्कूल आ गया, ताकि मुझसे पैसे लेकर पिक्चर देखने जा सके।

मैं क्लास से बाहर आ कर उसकी बात सुनते ही उत्तेजित हो गया कि उसने ऐसा कार्यक्रम क्यों बनाया, और मैंने उसे पैसे न देकर वापस भेज दिया। जबकि मेरी जेब में पर्याप्त पैसे थे, और वो जितने पैसे मांग रहा था, उतने आराम से मैं उसे दे सकता था। वो चला गया।

इस घटना ने मुझ पर जीवनपर्यंत बहुत प्रभाव डाला। उसके जाते ही मुझे गहरा पश्चाताप हुआ कि मैंने ऐसा क्यों किया? मेरा मन किसी बात में न लगा। मैं दिनभर यही सोचता रहा कि उसके दोस्तों के सामने उसकी स्थिति कैसी हुई होगी? उन्होंने क्या सोचा होगा? फिर क्या किया होगा? क्या अकेला वही फ़िल्म देखे बिना वापस लौटा होगा, या सभी ने मित्रता में अपना प्लान रद्द कर दिया होगा।

छोटे- छोटे चार- पांच बच्चे किस उम्मीद और उत्साह से साइकिल चलाते हुए इतनी दूर मेरे पास आए होंगे कि अपने मित्र के बड़े भाई से उन्हें सहयोग मिल जाएगा, पर बाद में उनकी मनोदशा क्या हुई होगी।

इस घटना को मैं अपने व्यक्तित्व पर से खुरच कर जीवन भर नहीं मिटा पाया।

सबसे छोटी मेरी एक बहन थी। उसका स्वभाव मुझसे बहुत मेल खाता था। हम सब उसे प्यार भी बहुत करते थे और भाई बहन वाली छेड़खानी में भी कमी नहीं करते थे।

जब वो बहुत छोटी थी तो एक दिन स्कूल से आकर बोली - हमारे स्कूल में एक नया फैशन चला है, हॉस्टल की लड़कियां अपने माथे पर से कुछ बालों को काट लेती हैं ताकि वो कान पर लटके रहें।वो बहुत सुंदर लगते हैं।

असल में स्कूल के हॉस्टल में जो दूसरे शहरों में रहने वाली लड़कियां थीं वो जब अपने घर जाकर छुट्टियों से वापस आतीं तो शहर के फैशन या अपनी देखी हुई फ़िल्मों से ये सब सीख कर आती थीं।

मैंने उससे कहा कि ला तेरे बाल भी मैं काट कर वैसे ही बना दूं।

वो बोली - मम्मी नाराज़ होंगी, मुझे डांट लगाएंगी।

मैंने कहा - नहीं डांटेंगी, मैं उनसे कह दूंगा कि मैंने काटे हैं इसके बाल।

वो आश्वस्त हो गई और जल्दी से कैंची उठा लाई। उसे भरोसा था कि घर में मुझे किसी बात के लिए कोई नहीं डांटता है।

मैंने सचमुच उसके बाल उस समय चल रहे फ़ैशन के अनुसार बना दिए। वो खुश हो गई।

जब शाम को मम्मी के वापस आने का समय हुआ, मुझे कुछ मज़ाक सूझा। मम्मी को दूर से आता देख कर मैं उससे ये कहकर बाहर चला गया कि मैं मम्मी से तेरी शिकायत करता हूं कि तूने बाल कटवा लिए।

वो मुझे मम्मी के पास जाता देख कर सचमुच ज़ोर ज़ोर से रोने लगी।

उधर मैंने मम्मी को कुछ कहा तो नहीं था, उनसे वैसे ही बातें करता हुआ उनके साथ साथ आ रहा था।

उसे दरवाज़े पर खड़े होकर ज़ोर ज़ोर से रोते देख कर मम्मी ने प्यार से पूछा - अरे, क्या हो गया? मम्मी ने उसके बालों पर ध्यान भी नहीं दिया।

उसे जैसे ही पता चला कि न तो मैंने उसकी कोई शिकायत की है और न ही मम्मी ने बाल कटवाने पर कोई आपत्ति की है, तो वो ज़ोर ज़ोर से हंसने लगी।

आंखों में आंसू और ज़ोर की हंसी...उसकी शक्ल उस समय तस्वीर उतारने जैसी हो गई।

बाद में हम सब इस घटना पर खूब हंसे।

मुझे बचपन से ही ऐसे मज़ाक सभी घर वालों से करने की बहुत आदत थी।

इसमें मेरा छोटा भाई भी मेरा बहुत साथ देता था, और हम दोनों किसी का भी कहीं भी मज़ाक उड़ा देते थे।

खासकर छुट्टियों में जब चाचा, ताऊजी, मौसी या बुआ के घर हम लोग जाते, या वो हमारे यहां आकर इकट्ठे होते तो ढेर सारे बच्चे होते और ऐसे में हमारी शैतानियां भी खूब बढ़ जाया करतीं।

हम किसी भी घटना पर फिल्मी गानों की तर्ज़ पर पैरोडियां तुरंत बना लेते और ढोलक की थाप पर गाकर किसी की भी खिल्ली उड़ा देते थे।

घर पर किसी भी बात पर अगर किसी बच्चे को डांट खानी पड़ती तब हम हंस कर मज़ाक उड़ाते।

हम छोटे तीनों भाइयों के स्वभाव अलग अलग होने से हमारे बीच में घर के छोटे मोटे काम भी उसी अनुपात में बांटे जाते।

जैसे कहीं बाहर जाने या बाज़ार से कुछ लाने का काम हो तो छोटे भाई को मिलता। वो बहुत जल्दी साइकिल, स्कूटर, मोटर साइकिल और कार भी अच्छी तरह चलाने लगा था।

आश्चर्य की बात ये थी कि मुझे साइकिल चलाना बड़ा भाई सिखाता था और मोटर साइकिल छोटा भाई...पर मैं कुछ नहीं सीख पाता था।

घर में लोहे लकड़ी के मेहनत वाले काम बड़ा भाई करता। बिजली, नल, पंखा, प्रेस ठीक करने से लेकर बगीचे में पेड़ पौधे संभालने तक के काम में उसे मज़ा आता।

यदि कुछ लिखने पढ़ने का काम हो, किसी का कोई फॉर्म भरना, एप्लीकेशन लिखना, बैंक पोस्ट ऑफिस का कोई काम हो तो वो मेरे जिम्मे रहता।

घर के काम, कपड़े आदि से संबंधित काम हर घर परिवार की तरह बहनों के होते।

हमारा परिवार संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा था। मेरे पिता पांच भाई और दो बहन थे, तथा माता पांच बहन एक भाई। फिर सभी के बड़े बड़े परिवार। हम लोग ढेर सारे भाई बहन होते थे।

अक्सर कोई न कोई दूसरा परिवार भी आता जाता रहता था। छुट्टियों में तो मिलते ही थे।

इसी अनुपात में हम सब के अपने अपने मित्र भी होते। किसी मौक़े पर सबका मिलना एक साथ होता तो आनंद आ जाता था।

मुझे अपने बालपन का ऐसा अवसर भी याद है जब हम घर के चचेरे, ममेरे, मौसेरे सात भाई भी गर्मियों में एक बाथरूम में एक साथ बिल्कुल नंगे नहा लिए थे। जिनमें नौ साल से लेकर उन्नीस- बीस साल तक की उम्र के भाई शामिल थे।

भाइयों के बीच अपनेपन की ऐसी मिसाल शायद ही कोई और हो।

हमने बड़े गुसलखाने को भीतर से बंद करके उसमें नल से पानी भर कर स्विमिंग पूल बना लिया। जब जहां कहीं से पानी रिसता तो सबसे छोटे भाई का अंडरवियर उतरवा कर वहां लगवा देते। थोड़ी देर में खूब सारा पानी इकट्ठा हो गया और एक एक कर के सबकी चड्डी उतर गई। पूरे कपड़े उतार कर सब नहाने का आनंद लेने लगे।

हमारे घर के बड़े बूढ़े लोगों के भी खूब सारे ऐसे किस्से प्रचलित थे जिन्हें सुनकर किसी को भी आसानी से यकीन नहीं हो।

एक बार इलाहाबाद में गंगा यमुना नदी के संगम पर नहाते समय मेरी सबसे छोटी बहन बह कर पानी में चली गई थी।

घाट के मल्लाह युवकों के परिश्रम से वो हमें जीवित वापस मिल पाई।

खेल खेल में स्विमिंग पूल बनाकर नहा लेने के अनुभव ने मुझे जीवन का एक बड़ा रहस्य भी समझाया जिसका परीक्षण मैंने बाद में अलग अलग बहुत से अवसरों पर करके कुछ प्रचलित बातों की पुष्टि भी की।

हिन्दू समाज में सगे भाई बहनों के बीच आपस में विवाह नहीं होता है। इसी तरह कुछ अपवादों के साथ कुछ जातियों में खून के इन रिश्तों के बीच भी कुछ कुछ संबंधों में शादी हो जाती है। कभी कभी क्षणिक उत्तेजना और आवेश में शादियां हो तो जाती हैं, पर उन्हें दीर्घकाल तक शारीरिक संतुष्टि उपलब्ध नहीं होती है।

जहां कहीं ऐसा हो जाता है वहां कोई न कोई शारीरिक कारण ज़रूर होता है।

कई बार हम सुनते हैं कि पिता पुत्री के बीच संबंध बन गया। ऐसा तभी हो पाता है जब पिता वास्तव में संतान का जनक नहीं हो। संबंधों में घालमेल के चलते जाने अनजाने में किसी और के संसर्ग से संतान गर्भ में आई हो। केवल शादी विवाह की ही बात नहीं, बल्कि कभी कभी बहन भाई के बीच भी शरीर का ये आकर्षण देखने में आ जाता है। प्रायः दूर के रिश्तों से भाई बहन एक दूसरे के शरीर में जगह बना लेते हैं।

खून के रिश्तों के मामलों में कई बार शरीर की मिट्टी हमको ऐसे संकेत दे देती है कि कहां सफलता मिलेगी कहां नहीं। हम त्वचा के घर्षण मात्र से इस शारीरिक केमिस्ट्री के या बायोलॉजिकल विभेद को भांप सकते हैं।

अलग अलग रिश्तों के भाइयों के साथ निर्वस्त्र होने की स्थिति में, और जाने अनजाने एक दूसरे का बदन छू जाने की अवस्था में भी ये अंतर मैंने महसूस कर लिया था कि कुछ शरीरों के छूने के साथ उनसे विकर्षण और कुछ से तटस्थता महसूस की जा सकती है। शायद हमारे शरीरों की निर्मिती का समीकरण हमारे कामोद्दीपन को ऐसे ही संचालित करता है।

यही बात लड़के और लड़की के बीच रिश्ता हो पाने और न हो पाने को निर्धारित करती है। यदि इसके इतर कुछ होता भी है तो वो नशे की अधिकता या परिस्थितियों के प्रवाह में हो पाता है।

लेकिन यहां ये भी आवश्यक है कि शरीर का ये ताप लड़की के मामले में रजस्वला हो जाने और लड़के के मामले में उसके वीर्य वान हो जाने के बाद ही लागू होता है जिसकी आयु प्रायः ग्यारह से चौदह वर्ष के बीच होती है। बच्चे इस परिवर्तन को आसानी से जान नहीं पाते।

मैंने बहुत छोटी अवस्था से ही इन जटिल तथ्यों को भांपने का जो अनुभव पा लिया इसके पीछे शायद तत्संबंधी गंभीर साहित्य को पढ़ लेने का ही कारण मुख्य रहा होगा।

बहरहाल ये ज़रूर हुआ कि इस तरह के विमर्शों के मौके भी मुझे खूब मिले।



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