माटी की पाती मेरे नाम.......।
माटी की पाती मेरे नाम.......।
गोधूलि वेला का समय, गर्मियों की रातों में ठंडी धोरा री मिट्टी, प्रातः चिड़ियों की चहचहाट, उदय एवं अस्त सूर्य का दृश्य, गर्मी में मिट्टी पर मरीचिका बनना, शाम के समय पणिहारीयाँ पानी लाती, सुबह-सुबह लोगों का अपने -अपने काम पर खाना लेकर जाना आदि यादें गांव की आज भी मन मोह लेती है।
जब मैं घर का सबसे छोटा लाडला बेटा था ।मां मुझे हाथ से खाना खिलाया करती थी ।तब मां के हाथ का खाना खाने को इनकार कर देता था।
आज उस खाने के लिये तरस रहा हूँ । दोस्तों के संग में सब भूलकर खेलता था। क्या आनंद आता जब धोरो की मिट्टी में लूटते थे। ना परवाह थी सर्दी की, ना गर्मी की, बस अपनी मौज में मस्त प्यारा था। जब आते घर पर कोई अजनबी तब उसे मेहमान कहते थे ।आज वह अजनबी मैं बन गया उसकी जगह मुझे कहते हैं मेहमान, गाड़ी के टायर से खेलना, कपड़े से बनी कच्ची गेंद से खेलना, मां का सहारा देने के लिए ऊंट की तरह बन कर लाते लकड़ियां, स्वांग दिखाने वाले बहरूपियों के साथ पूरे गांव में उसके पीछे -पीछे चलते शोर मचाना, ऊंट की सवारी करते खूब देखता बैठा- बैठा खेत खलियान, वह गलियां भी याद है जिसमें खूब दौड़ लगाते एवं कुश्ती खेलते थे । आज उस गलियों की मिट्टी की भी यादें आती है। वैशाख का माह में पैसा इकट्ठा करके पीपल के पेड़ में पानी का टैंकर डलवाते और उस पानी में दिन भर नहाते खूब आनंद लेते वो भी क्या दिन थे। होली, दीपावली पर एक टोली बनाकर घर -घर करते राम -राम एवं खूब खाते मिठाइयां और सारे दिन घूमते।
मां नहला धुलाकर लगाती थी काजल का टीका मेरे चांद के कहीं लग ना जाए नजर, वो चाँद भी आज माँ के पास बिताने समय जाता है। पर 2-4 दिन में आता वो नोटिस भी माँ से कुछ महीनों के लिये कर देता दूर। वह घास फूस के बने मकान कच्चे झोपड़े आज भी याद आते हैं ऊपर से तिकोना, नीचे से गोल उसमें भी सारे परिवार कितने खुश रहते थे।
लिखता- लिखता बचपन की यादें से भावुक हो गया।
धोरा री माटी की मेरी चिट्ठी
लम्हे लम्हे बचपन गुजरता गया,
जिस जिम्मेदारियों को में न लेना चाहा वो जबरदस्ती आ पड़ी।
स्कूल का कहते तो रोना आता, खेलना प्यारा, आज वह स्कूल प्यारा, खेल हो गया न्यारा ।
उस पीपल के पेड़ के झुरमुट को देखकर आता बचपन याद,
सोचता हूं वह भी क्या दिन थे, जब इस पेड़ का था स्वाद।
ना टेंशन थी संगी साथियों के साथ, ना भय
बस एक ही था कल रविवार की छुट्टी को पीपल पर खेलना तय।
खेलते चप्पल की बनी बनाई अपने हाथों की गाड़ी,
लुका चुप्पी खेलते तब ढूंढते थे कहां मिलेगी झाड़ी। होली पर खेलते गेंद, मिठाई खाते, उछालते रंग,
ऐसा लगता था कि शायद हमारा कभी नहीं छूटेगा संग।
धोरा की मिट्टी में खेलना नीम की निंबोली खाना,
बहरूपियों के साथ सारे गांव में घूम -घूमकर शोर मचाना।
याद है साथियों के साथ ठहाके वाली बाते,
अर्द्ध रात्रि तक खेलना वह भी याद है रातें।
आज वह छूट गए प्यारे- प्यारे साथी,
शहरों के चक्कर में आने पर छूट गई बाजरे की चपाती।
