लोग क्या कहेंगे?

लोग क्या कहेंगे?

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हम उस मोहल्ले में नए-नए आए थे। हम भी नये थे, कहने का अर्थ है कि शादी को अभी 6 महीने नहीं हुए थे। मैं थी 18 की और पतिदेव की उम्र थी लगभग 24 वर्ष। दुनियादारी क्या होती है, कम से कम मुझे तो कुछ पता नहीं था। घर के सामने एक दो मंजिला मकान था। मैं घुलने - मिलने में हमेशा देर लगाती हूं। उस परिवार के सदस्यों को देखती तो थी, मगर बातचीत की पहल नहीं की। एक दिन चाची, ये संबोधन तो हमने उन्हें बाद में दिया था, मेरे घर आईं।पूछा, कहां की हो ? मैने कहा ,अहमदाबाद से हूं। अगला सवाल था, भैया कहां भेंटाने ? 

मुझे इस शब्द का अर्थ समझ नहीं आया। उन्होंने भेदी निगाहें गड़ाकर पूछा, प्रेम विवाह किए हो ?

मैं उनका मुंह देखती रही, मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। मेरी घबराहट तो उनकी अवधी भाषा को न समझ में आने के कारण थी, मगर उन्होंने सवालों की झड़ी लगा रखी थी, बोलीं, शादी का एल्बम कहां है, देखें ? मैंने इधर -उधर देखना शुरू किया, वे बोलीं, क्या हुआ, नहीं मिल रहा ? मेरी खुशकिस्मती की मेरे पति उसी समय आ गए, उन्होंने एल्बम ढूंढ़ निकाला।

दूसरे दिन दोपहर हुई ओर वे फिर हाज़िर ! मैं खाना बनाने की तैयारी कर रही थी।

उन दिनों कुकर होना और स्टोव पर खाना पकाना हर घर में शायद नहीं था। उन्होंने मुझे सेपरेटर में दाल, चावल और आलू रखते देख, बहुत अचंभित होकर पूछा, ये एक ही टाइम में कैसे पक जाएंगे। मेरे जवाब से वे संतुष्ट नहीं लगीं, फिर कहा , इसमें पका खाना स्वादिष्ट तो नहीं हो सकता, हैं आजकल की लड़कियाँ मेहनत कहां करना चाहती हैं !

मुझे माँ की हिदायतें याद आ गईं, बड़ों से बहस नहीं करते, मगर मुझे उनका अनाधिकार दख़ल कुछ ख़ास पसंद नहीं आया। धीरे धीरे मुझे समझ आने लगा कि वह उनका स्नेह ही था कि वे हम दोनों पर अपना अधिकार मानती थीं।

उन्होंने हमें यूं अपना लिया जैसे हम उनका ही हिस्सा थे। वे 3 देवरानी जेठानी थीं। संयुक्त परिवार था और मेरी हमउम्र उनकी बेटियां थीं। पता ही नहीं चला कब मैं, भाभी और वे मेरी ननद बन गईं। मेरी पहली संतान होने पर अस्पताल से घर तक उन्होंने संभाल लिया।

बच्ची की बरही पर सोहर गीत भी ननदों ने गाए और भैया ने नेग भी दिया। 

वक्त बीतने के साथ हमारे सम्बन्ध और भी मज़बूत होते गए। जब उनकी अपनी बहुओं का आगमन हुआ तो भी मेरा मान वैसा ही बना रहा। धीरे - धीरे हमारे बच्चे भी उनके पोते - पोतियों से घुल मिल गए और घनिष्ठ सहेलियों और भाई बहनों सा ही व्यवहार हो गया।

 

दो दिन बाद विवाह था अनुराधा का, अनु मेरी बड़ी बेटी की हमउम्र और चाची की पोती थी। दादी जी यानी चाची को सबसे ज्यादा यह चिंता कि अनु रो नहीं रही। अनु को हल्दी लग रही है, अनु रो नहीं रही। अनु को मेंहदी लगाई जा रही है, अनु तो उठ कर नाच रही है, रो नहीं रही। रात को कामकाज निपटा कर घर और पड़ोस की महिलाएं ढोलक लेकर बैठ जातीं और बाबुल की दुआएँ और विदाई के लोकगीत गा रही हैं, मगर अनु रो नहीं रही। अनु ने यू एस चले जाना है, जाने फिर कब आना, मिलना मिलाना हो, मगर अनु तो कुछ सोच ही नहीं रही,अनु रो नहीं रही। अनु के पिता हृदयघात से नहीं रहे थे।

आज मातृ पूजा है, कल अनु शादी के बाद विदा हो जाएगी। चाची गईं और अनु के चाचा को लेकर कमरे में आईं। लड़कियाँ हँसी - ठिठोली में लगी हुई थीं।चाची ने उन्हें आगे करके कहा, अनु, या देखो चाचा,अनु मस्त है बातों में। उन्होंने फिर दोहराया,अनु ,या देखो चाचा ,इस उम्मीद में कि शायद अनु चाचा को देखकर भावुक हो रो देगी। मगर अनु तो ठहरी अनु। उसने कहा हां, देख तो रहे हैं, क्या देखना है चाचा को ?

मुझसे चाची कि यह दशा नहीं देखी गई। मैंने अपनी बेटी से कहा, बेटा, अनु से कहो, लड़कियों को इस मौके पर रोना चाहिए, अगर वह नहीं रोएगी तो लोग क्या कहेंगे!

चाची को उम्मीद थी कि विदाई के समय अनु जरूर रोएगी, वह अपनी माँ के गले लगी, भाई बहन, परिवार, सहेलियों सबसे मिली, बाय बाय किया मगर अनु नहीं रोई।



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