क्रोध के पात्र
क्रोध के पात्र
बचपन से ही मैं धार्मिक प्रवृत्ति का था। शुरू से ही दूसरो के दुखो को दिल से ले लिया करता था। समय के बीतने के साथ, युवावस्था में रोज सुबह नहाधोकर पास के ही प्राचीन नागबासुकी मंदिर चला जाया करता था। उम्र के बढ़ने के साथ ही शरीर का फैलाव भी जारी रहा, जिस कारण शाम को भी टहलने निकल जाया करता था।
प्रतिदिन सुबह शाम दोनो मंदिर जाता अवश्य था, पर बेरोजगारी में धन की कमी के कारण कभी कदार ही कुछ चिल्लर मंदिर के दान पेटियों में डालता था। कभी कभी कोई बड़ी खुशी मिलती थी, तो पाँच रुपये का सिक्का दान पेटी में डाल देता था।
हाँ पैसे डालते समय पुजारी को दिखाकर नही डालता था। तो शायद पुजारियों के मन में यह बात बैठ गई कि चढ़ाता तो कुछ है नही, हाँ हनुमान जी के पैरो से रोज तिलक जरुर लगा लेता है, और फिर प्रसाद के लिए हाथ फैला देता है।
प्रतिदिन की भाँति एक दिन सुबह मैं नजदीक के ही नागबासुकी मंदिर सुबह 5.30 बजे नहा धोकर पहुँच गया। 15 मिनट बाद ही पुजारी मंदिर पहुँच कर आरती शुरु कर दिए। हम कर्ई लोग खड़े होकर जय जयकार करने लगे, तभी आखिर में पुजारी आरती लेकर चारो दिशाओ में घूमने लगे, और जैसे ही मेरी तरफ आरती लेकर सामने आए, वैसे ही मैने भूलवश आरती लेने की कोशिश की तभी पुजारी जी ने अपनी भाव भंगिमा क्रोध वाली बना ली।
मुझे तुरंत ही अपनी गलती का एहसास हुआ, मै तुरंत एक कदम पीछे हट गया। इसी प्रकार एक दिन मुख्य कक्ष के बाहरी दीवार पर हनुमान जी की मूर्ति लगी हुई है, यानि मुख्य कक्ष के अंदर जाने से पहले हनुमान जी को नमन करते थे। हनुमान जी मूर्ति तीनो तरफ से लोहे की जालीदार आवरण से ढका है, जिसमें जालीदार दरवाजे लगे है।
मंदिर के पुजारी का मंदिर आने का कोई निश्चित समय नही था, कभी तो 5.30 बजे आ जाते, तो कभी 8.00 बज जाते थे। एक दिन मैं पहले ही पहुँच गया, तो हनुमान जी की स्तुति करने के बाद दरवाजे को पुनः बंद कर रहा था, तभी पुजारी जी मंदिर परिसर में आ गये , और पीछे से ही डाटने के हाव भाव में बोलने लगे कि दरवाजा क्यो बंद कर रहे हो।
यह सुनकर मुझे थोड़ा सा खराब तो लगा, पर मैने बात को अनदेखा कर दिया। क्योंकि पुजारी के स्वभाव से पूर्णता परिचित था।
इसी प्रकार एक दिन शाम को टहलने के बाद जब बीच में शिव जी के मंदिर गया, तो मैं सीधे शिवलिंग को प्रणाम करके जैसे ही शिवलिंग को स्पर्श किया, वैसे ही आरती उतार रहे पुजारी जी मुझसे बुदबुदाने लगे। बगल में ही खड़ी एक महिला मुझे आँख दिखाने लगी, उन दोनो के हाव भाव असल में मुझे बहुत खराब लगे।
वास्तव में आरती करते समय किसी को मालूम ही नही पड़ता था कि वो पुजारी पूजा भी कर रहे है। यानि अगल - बगल रामचंद्र और दुर्गा माता की मूर्तियों की सभी स्तुति कर रहे थे। यही देखकर मुझे खराब लगा कि मुझे ही आँख क्यो दिखाए, जबकि एकाद लोग और भी शिवलिंग को स्पर्श कर रहे थे। तभी से मैने तय किया कि मैं शाम को मंदिर के अंदर ही नही जाऊगा। मेरा भी आत्मसम्मान है। तब से मैं बाहर से ही हाथ जोड़कर आगे बढ़ जाता था।
समय के साथ प्राइवेट नौकरी करने लगा, जिससे सुबह और शाम की दिनचर्या बदल गई, और मंदिर जाना बंद हो गया।
आस्तिक विचारों के होने के कारण पिछले पाँच सालो से पुनः मंदिर कभी कदार हो लिया करता हूँ।
अभी छः महीने पहले ही एक दलित मित्र से जातपात पर चर्चा करते समय यह बात उठी कि बाबा साहेब बहुत अपमानित हुए है, ब्राह्मण समुदाय के लोग दलित समुदाय के लोगो को मंदिरो में नही घुसने देते थे, आदि आदि।
तभी मुझे भी अपने संस्मरण याद आने लगे कि कैसे कैसे मैं भी पुजारियों के क्रोधो का पात्र बना हूँ। जबकि मैं जाति से ब्राह्मण हूँ।
कहने का तात्पर्य यह है कि किसी कारणवश कोई भी पुजारियों आदि के क्रोध का पात्र बन गया हो, तो इसका अर्थ यह नही होता है कि मेरा अपमान मेरी जाति का अपमान है। क्योकि आप जाति से पहचाने जाते है, न कि जाति आप से पहचानी जाति है। आज के जमाने में तो किसी की जाति को रुप रंग के आधार पर आप पहचान ही नही सकते है। यानि जाति किसी के माथे पर नही लिखी होती है, जो पंडित या पुजारी पढ़कर अपमानित करने का फैसला लेता है।
आज के समाज में मान सम्मान के साथ अपमानित और तिरस्कार से लगभग सभी लोग दो चार होते ही है। वो पुरुष हो या महिला।
अगर छोटी छोटी बातो को "तिल का ताड़" बनाया जाने लगे तो हम अपने माता - पिता की डाँट को भी आत्मसम्मान के तराजू पर तौलने लग जाएगे।
इतना कहूँगा कि ब्राह्मण व पुजारियों के क्रोध आदि के पात्र गैर ब्राह्मण ही नही बल्कि स्वयं ब्राह्मण समुदाय के लोग भी हुए है, इसका अर्थ यह नही कि हम उसी बात को लेकर बैठ जाए। जिंदगी सिर्फ चलने का नाम है।
