कर्म फल
कर्म फल
राजाबाबू के पिता राजा करमचंद को पूरा राज्य भगवान की तरह मानता था।
वे प्रजा को संतान की तरह ही मानते थे। उनका नियम था वे बड़े सवेरे उठकर और सोने के पहले प्रजा का हालचाल पूछा करते थे। राजकाज बढ़िया शान्ति से चल रहा था। वहीं उनके पुत्र को लगता कब पिता गद्दी छोडे़, मैं सिंहासन पर बैठूँ। वह इसी उधेड़बुन में लगा रहता। अपने लोभी साथियों के साथ मंत्रणा में लगा रहता। एक दिन तो हद हो गई जब वह अपने चाटूकारों के साथ वहाँ पहुँचा।
उन्हें मारने की धमकी देते हुए बोला- आप वन में जाओ, पूरा राज पाट मेरे हवाले कर दो।
राजा करमचंद को अपने पुत्र से ऐसी उम्मीद कतई ना थी। दूसरे दिन राजा ने सभा में एलान कर दिया कि आज से राजाबाबू राजकाज देखेंगे। मैं नाममात्र का राजा हूँ, गद्दी राजाबाबू ही बैठेंगे।
राजाबाबू खुश, उनके चाटुकार दोस्त राजा से रोज ही कुछ न कुछ फरमाइश करते और धन खर्च करवाते और ऐश करते। ऊटपटांग खाने पीने एवं अत्यधिक व्यसनों के कारण वह बीमार पड़ गया। सभी चाटुकार दोस्त भाग खड़ हुए।
राजाबाबू को लगा अंत समय आ गया और बुरे स्वप्न आने लगे। उसे राजा, प्रजा के ऊपर किए गये बुरे कर्मों की सजा मिल रही है, वह ऐसा अनुभव करता।अपने आप को कोसता। कर्म फल, कर्म फल कहता रहता।
राजा करमचंद ने उसे राजवैद्ध को दिखाया। बहुत उपचार के बाद वह ठीक तो हो गया परन्तु वह अपने पिता से आँखें नहीं मिला पाता। तब पिता ने कहा- बेटा ! पिता के बाद सब कुछ बेटे का ही होता है। समय से किए गए कर्म का फल मीठा होता है।