कर्म का अकाट्य सिद्धांत

कर्म का अकाट्य सिद्धांत

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एक बार किसी नगर में चांडाल पुरुष रहता था। उसके घर जब एक दिन साधु भिक्षा मांगने आया। तो साधु ने हाथ का पात्र आगे बढ़ाते हुए भिक्षां देहि.....कहा। परन्तु ये क्या। पात्र में , अन्न और दक्षिणा के बदले राख डाल दी थी उस चांडाल ने। साधु फिर भी खुश था। रमता जोगी चल पडा हिमालय की तराई में समाधिस्थ होने के लिए। 

कालांतर में जब उस चांडाल व्यक्ति का देहावसान हुआ तो उसको उसी के कर्मफलानुसार पाप या पुण्य का भागीदार बनना था।

पहले उसे उस कर्म को भोगना था जब किसी साधु को दान में राख दे डाली थी। काल के प्रहरियों ने उसे राख के विशाल पर्वत के सामने खड़ा कर दिया और आदेश दिया कि तुम्हे इस समग्र राख का भक्षण करना होगा।

यह सुनते ही चांडाल पुरुष घबराकर कहने लगा कि क्या राख भी खाने की वस्तु है ? इस पर प्रहरियों ने कहा कि तुमने ही किसी साधु पुरुष को भिक्षा पात्र में राख का दान दिया था। आज वही राख संचित कर्मानुसार बढ़कर विशालकाय पर्वत में परिवर्तित हो गयी है।

किया गया शुभाशुभ कार्य उसके परिणाम के अनुसार घटता बढ़ता रहता है। अतः सतकर्म करते रहना चाहिए। तब उस व्यक्ति को समझ आया कि जीवन मे कहाँ पर क्या भूल हुई है। परन्तु अब वह निरुत्तर था उसे कर्मानुसार फल तो भोगना ही था।


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