जादुई मैदान
जादुई मैदान
एक छोटा सा परिवार , प्रशांत ,उसकी पत्नी मीनाक्षी ,,बहुत ही समझदार ,सुशील व एक आदर्श ग्रहणी और एक छोटी लड़की ,वैशाली ..छोटी पर जो विचारों से शीघ्र बड़ी हो चुकी है । अपने माता –पिता का ध्यान रखने वाली एक बुद्धिमान लड़की।
प्रशांत जब कभी बहुत खुश होता , उसे कहीं सफलता मिलती या जब कभी भी निराशा हाथ लगती या वो अपने आपको अकेला पाता तो वह एक मैदान के पास जाता और अपना समय व्यतीत करता , उसे वहाँ सुकून मिलता ,वह अद्भुत सरसता का अनुभव करता । काफी दिनों से प्रशांत और मैदान का रिश्ता बन चला था और आज ये मैदान उसकी जिंदगी का अभिन्न भाग बन गया था । वो अपनी बातें अपनी पत्नी और लड़की से भी साझा करता ,पर शायद सुनना चाहते हुए भी कभी समय की व्यस्तता या अन्य पारिवारिक कारणों से वे उसे सुन नहीं पाते । वो मैदान ही था जो उसे हमेशा समझता और तब तक सुनता जब तक प्रशान्त के हृदय में उथल-पुथल करता समंदर शांत नहीं हो जाता ।
आज सुबह जैसे ही प्रशांत ने अखबार पढ़ना शुरू किया ,उसकी साँसे मानो रुक गई । देश के बड़े शहरों में बम धमाके । चारों तरफ भय का आतंक बढ़ता ही जा रहा है , प्रशांत इसके लिए कभी समाज को जिम्मेदार मानता कभी सरकार को । वह अपनी टिप्पणी बहुत देर तक करता रहा ,मीनाक्षी नाश्ता देते हुए बोली –“ टाइम हो गया है ,नाश्ता कर लो और काम पर जाओ।घर में बैठकर चिल्लाने और शोर मचाने से कुछ नहीं होने वाला है ।" उसके पास वैशाली भी नाश्ता करने बैठती है। वह वैशाली से भी अपने विचार साझा करना चाहता है पर वो भी "मुझे स्कूल के लिए देर हो रही है –कहती हुई चली जाती है। बाय मम्मी बाय पापा ,जैसे उसने पापा की आवाज को सुना ही न हो।
प्रशांत ऑफिस जाता है पर पुरे दिन मन अशांत ही रहता है।वह ऑफिस से जल्दी निकलकर उस मैदान के पास पहुँचता है और टकटकी लगाकर उस मैदान को देखते जाता है।आज प्रशांत उस मैदान से आग की लपटें आती हुई महसूस करता है की ये लपटें उसकी ओर बढ़ती ही जा रही हैं।कभी अचानक से ये लपटें कम हो जाती और कभी अचानक से तेज हो जाती।मैदान के चारों तरफ उष्णता छायी हुई थी ,मैदान की तपन दूर खड़े प्रशांत को परेशान कर रही थी।कोई पक्षी वहां नहीं था , शायद सभी जा चुके थे , उस मैदान में खड़े वृक्ष भी झुलसने लगे थे , ऐसी उष्णता से प्रशांत व्याकुल हो उठा , यदि वह भागकर पीछे ना हटता तो आज इस आग में झुलस ही जाता ।
घर आकर प्रशांत चुपचाप बैठ जाता है , मीनाक्षी और वैशाली के साथ कुछ समय व्यतीत करता है।यहाँ सब व्यस्त थे ,सबके पास वक्त था पर एक –दूसरे के लिए नहीं ।
कुछ दिन बाद प्रशांत बहुत खुश था , भारतीय क्रिकेट टीम ने सीरीज जो जीती थी , प्रशांत भारतीय क्रिकेट टीम खिलाड़ियों के तारीफ के पुल बनाते नहीं रुक रहा था।सुबह नाश्ते की टेबल पर ऑफिस जाने तक वह मीनाक्षी और वैशाली के साथ यही चर्चा करता रहा।मगर हर बार की तरह उन दोनों ने उसकी बातों में कोई रूचि नहीं दिखाई।आज फिर प्रशांत फिर उसी मैदान में जाता है , आज उसे उस मैदान में अब तक का सबसे मनोरम दृश्य दिखाई दिया , छोटे –छोटे सुन्दर फूलों के पौधे और महकती हवा, हलकी –हलकी प्रकाश की किरणें उन पर पड़कर सारे दृश्य को और सुखद बना रही थी। उसने वहां कुछ देर समय बिताया ,उसे लगा की घड़ी की सुइयां आज बहुत तेजी से चली हैं , अगर वो घड़ी पर नजर ना डालता तो यहीं सुबह हो जाती।घर जाकर वो मैदान के अचरज भरे व्यवहार की चर्चा करता है , वो बताते –बताते कुछ दिन पहले की घटना को याद करता है, जब यही असीम शीतलता प्रदान करने वाला मैदान अपर ज्वाला उगल रहा था।मिनाक्षी और वैशाली इस बात पर इतना ध्यान नहीं देते , प्रशांत कुछ देर सोचकर सोने चला जाता है।प्रशांत के जीवन में अब यह घटना गहन रूप लेती जा रही थी , जब भी प्रशांत समाचार पत्रों , टी। वी।या दोस्तों से देश के बिगड़ते हालात , भ्रष्टाचार , आतंकवाद , अपहरण , नारी –शोषण आदि सामाजिक अपराधों को सुनता या देखता ,उसका मन खिन्न हो जाता और वो उस मैदान पर पहुंचता ,उसे वो मैदान भभकता ही नजर आता।विपरीत इसके जब वो किसी भारतीय के कीर्तिमान , विजय तथा कोई सामाजिक हित की सूचना पाता तो उसे वो ही मैदान शीतलता से भर देता ।
इसी तरह प्रशांत की जिंदगी चल रही थी , उसका उस मैदान से एक रिश्ता सा बन गया था , वो मैदान प्रशांत को सुन सकता था , समझ सकता था , अपनी प्रतिक्रिया दे सकता था।उसकी पत्नी उसे ना सुनती ,उसकी उपेक्षा करती और दिनभर अपने व्यस्त जीवन में प्रशांत के लिए वक्त ही नहीं निकाल पाती थी । वैशाली भी अपने में ही जिये जा रही थी , घर में गेम , दोस्त , स्कूल और भी बहुत से काम , पर अपने पापा के लिए वक्त ही नहीं निकाल पाती थी ।
प्रशांत को मैदान के रूप में नया दोस्त मिल गया था , जो उसे पूरी तरह सुनता था , वो अपना अधिकतर समय अब वहीँ बिताता । जब प्रशांत अपने परिवार के साथ होता तो उन सबसे इस मैदान की चर्चा जरूर करता।मिनाक्षी को लगने लगा की अब प्रशांत धीरे –धीरे किसी मानसिक बीमारी से ग्रसित होता जा रहा है , अब पारिवारिक झगड़े बढ़ते जा रहे थे।शायद एक मैदान का फ़ासला उन दोनों के बीच आ गया था।वैशाली को इस सबसे से अब परेशानी होने लगी , देर से सही पर वैशाली का ध्यान मम्मी –पापा के बिखरते रिश्ते पर गया।वो चाहती थी की उसका परिवार एक खिलखिलाता परिवार रहे।आज से पहले उसने अपने घर के बारे में इतना नहीं सोचा था , आज अपने आप से निकलकर वो ये सब सोच पा रही थी , दिन में तो अब भी चौबीस घंटे ही थे।उसने अपने पापा की बातों पर ध्यान दिया , उन्हें समझने की कोशिश की , अब वो अपने पापा के पास बैठती , उनकी बातें सुनती , उनकी बातों पर यकीन करती।प्रशांत को भी वैशाली से अपनी बात शेयर करकर अच्छा लगता , अब प्रशांत अकेला नहीं बड़बडा़ता था , वैशाली और प्रशांत आपस में अच्छा समय व्यतीत करने लगे।वैशाली को जो काम बहुत पहले से करना चाहिए था अब उसने करना शुरू कर दिया था उसे ऐसा करने में सुकून मिलने लगा था।वैशाली ने इस पर सोचा और अपना समय को घर पर ज्यादा व्यतीत करने का फैसला किया , अब वैशाली अपनी मम्मी के घर के कामों में हाथ बटाने लगी , जिससे मिनाक्षी के पास शाम को वक्त होता।वैशाली मम्मी से पापा को लेकर बातें करती , तथा अपने तर्कों से मिनाक्षी को ये यकीन दिलाती की पापा को कोई बीमारी नहीं है।वैशाली अपनी मम्मी से ज़िद करती की आज आप कुछ नहीं बोलेंगी ,चुपचाप पापा को सुनना , बस एक हफ्ता।अब तीनों शाम को बैठते , मिनाक्षी और वैशाली दोनों पापा की बाते सुनते , कुछ अपनी भी सुनाते ।
प्रशांत अपने ह्रदय में बहने वाली उथालती –पुथलाती नदियों को , जो कभी –कभी सागर सा रूप ले लेती , अब मीनाक्षी और वैशाली के सामने बहने देता।वे दोनों भी जो अब तक उसके सागर से गहरे विचारों के सामने चट्टान के समान , उसके मार्ग को अवरुद्ध करती , अब शायद चट्टान ने रास्ता दे दिया था , जो धारा ना जाने कब से बहना चाह रही थी पर उसे मार्ग ही नहीं मिल रहा था ,अपना मनचाहा मार्ग।धारा को भी क्या कोई रोक पाया है ,वह बह तो रही थी उस मैदान के रास्ते , उस मैदान में उस धारा के लिए इतनी जगह थी जैसे विशाल समंदर में एक छोटी नदी का मिलना ।
अब प्रशांत अपने घर पर अधिक समय व्यतीत करने लगा , अब जब कभी वो उस मैदान पर जाता तो उसे वो मैदान बस मैदान ही नजर आता , ना को आग की लपटें ,ना कोई मनमोहक सीनरी।अब ना मैदान सुन सकता था , न बोल सकता था –ऐसा जैसे कोई संवेदना ही ना हो , होती भी कैसे – एक मैदान ही तो था।अब प्रशांत अपने अतीत को सोचता , उस मैदान के लिए भाव –विभोर हो जाता , एक समय में वो ही उसका सच्चा साथी था , पर अब मैदान की जरूरत नहीं रह गयी थी।हालातों में परिवर्तन आ चुका था , पर क्या अब प्रशांत उस मैदान को छोड़ दे ? ये ही उधेड़बुन उसके दिमाग में चल रही थी , वो आज फिर से उस मैदान के सम्मुख बैठा था , मीनाक्षी और वैशाली भी दूर से खड़े होकर ये दृश्य देख रहे थे , दूर से ही उस मैदान को धन्यवाद कह रहे थे जो कभी प्रशांत के असाधारण हो चला था , आज उसी मैदान ने फिर से साधारण होकर उनके बीच के फासलें को पाट दिया , खालीपन को भर दिया।
