हरिया
हरिया
गरीबी और बीमारी के चलते हरिया के माता पिता दोनों का ही देहान्त हो गया। अब 12 वर्ष के हरिया का चाचा चाची के सिवाय अपना कोई नहीं था। थोड़े दिन चाचा चाची ने हरिया को बिन माँ बाप का बच्चा जान प्यार किया, खाना पीना दिया लेकिन कुछ समय बीतने पर चाची घर का, बाहर का सारा काम हरिया से करवाती और खाने के नाम पर अचार या चटनी से बासी रोटी देती।
एक दिन इन सब से परेशान हो हरिया गांव छोड़ शहर जाने वाली बस में चढ़ गया और शहर में मेहनत मजदूरी करके अपना जीवन यापन करने लगा । धीरे-धीरे समय बीतने लगा अब हरिया नौजवान हो गया था। साथ काम करने वाले दीनू काका ने अपनी भतीजी की शादी हरिया के साथ कर दी ।
अब हरिया पहले से भी ज्यादा मेहनत करने लगा था, कुसुम भी बहुत ही शालीन स्वभाव की महिला थी और हरिया का बहुत ही ख्याल रखती थी। जिस इमारत को बनाते थे वे लोग, इसी में एक कमरे में अपनी गृहस्थी जमा लेते थे।
बीच बीच में हरिया गांव जाकर अपने खेत, जमीन व घर देख आता था। साथ ही चाचा-चाची को जमा किये हुए रुपयों में से कुछ रुपये भी दे आता था ताकि उन्हें किसी चीज की परेशानी न हो।
कुसुम अब चार बच्चों की माँ बन चुकी थी। हरिया अपने बच्चों से बहुत प्यार करता था, उनके खाने-पीने, खिलौने, कपड़े सभी चीज का पूरा ध्यान रखता था।
समय अच्छा ही बीत रहा था लेकिन पता नहीं कहाँ से एक ऐसी बीमारी आ गई जिसने आदमी को आदमी से दूर कर दिया । छू लेने भर से आदमी बीमार होने लगे। हमारा देश ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व इसकी चपेट में आने लगा। हर जगह लॉक डाउन की घोषणा हो चुकी थी सारे ऑफिस ,फैक्ट्री और बाजार, मजदूरी सब कुछ बन्द।
जैसे तैसे करके हरिया ने घर बैठकर प्याज और चटनी से बच्चों को रोटी खिलाई / लॉकडाउन था कि बढ़ता ही
जा रहा था। समझ नहीं आ रहा था कि क्या कब तक खुलेगा। एक उम्मीद की किरण जगी सरकार ने बताया कि गरीब मजदूरों को उनके गाँव जाने के लिए बस और रेलगाड़ी चलाई जा रही है। अब हरिया के पास 8-10 दिन अपने बच्चों को रोटी खिलाने के पैसे बचे थे। अब तो गांव जाना ही एक उपाय
बचा था।
अगले दिन सुबह जल्दी उठकर कुसुम से बोला ऐसा कर तू तीन-चार दिन की रोटी बना ले और झोलों में ये सब सामान और कपड़े भर लेते हैं और गाँव चलते है। रेलगाड़ी तो बहुत ही कम चल रही है, लेकिन मैंने रेलगाड़ी वाला रास्ता ही देखा है तो हम पटरी- पटरी तीन-चार दिन में पैदल चल कर गांव पहुंच जायेगे। कुसुम ने वैसा ही किया ।
कुसुम ने बच्चों को उठाया, बोली जल्दी उठो। चलो रेलगाड़ी के रास्ते पर घूमने चलेंगें। तुमको रेलगाड़ी अच्छी लगती है न । आज तुम्हें रेलगाड़ी दिखायेंगे, सचमुच की रेलगाड़ी ।
चारों बच्चे बहुत ही उत्साह के साथ जाने को तैयार हो गए। सुबह के आठ बजते तब तो हरिया कुसुम और चारों बच्चों ने महानगर को अलविदा कह दिया। बच्चे खुशी खुशी आगे बढ़ते जा रहे थे। भूख लगती तो कुसुम उनको रोटी लपेट कर दे देती। वो रोटी खाते हुए अपनी मस्ती हो चलते जा रहे थे। जब थक जाते तो कही छाया में एक-आध घंटा आराम कर लेते।
रात होने लगी थी सोचा थोड़ा आगे बढ़कर प्लेटफार्म पर रात बिता लेंगे । उमस भरी रात थी । सबने खाना खाया। गर्मी लग रही थी। हरिया बोला यहाँ बहुत गर्मी है। अभी रात में तो कोई रेलगाड़ी नहीं आयेगी, इसलिए चलकर पटरी पर सोया जाए। वहाँ खुली हवा लग रही है। बच्चों के लिए तो सोने वे सुहागा वाली बात थी। पहले कुछ देर वहाँ ईंट कंकड़ों से चारों बच्चे खेलते रहे फिर जब जिसको नींद आई वो वहां ही सो गया। थोड़ी देर में हरिया और कुसुम भी सो गये ।
इतनी परेशानी में भी में लोग खुश थे लेकिन कुदरत को इन पर तब भी तरस नहीं आया। 1.30 बजे का समय था, रेलगाड़ी अपनी गति से आगे बढ़ी चली आ रही थी। हॉर्न भी बज रहा था लेकिन दिन भर की थकान के बाद पूरा परिवार बेसुध हो कर सो रहा था, किसी को हॉर्न की आवाज नहीं दे रही थी ।
सुबह लोग देख रहे थे। पूरा परिवार चिथड़ों में पड़ा हुआ था, कहीं बच्चों के खिलौने, कहीं अगले दिन के लिए बचाई गई रोटियाँ पड़ी थी।
कोई कह रहा था कि निर्मम हत्या हुई है इस सबकी और कोई कह रहा था आत्महत्या की है।