Dr.manju sharma

Others

5.0  

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एक आकांक्षा

एक आकांक्षा

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गुड मॉर्निंग मैडम, गुड मॉनिंग, नमस्ते सर ,नमस्ते-नमस्ते। इस प्रकार अभिनंदन स्वीकार करती हुई ताज़गी भरी मुस्कान लिए आकांक्षा प्रार्थना सभा की ओर जा रही थी। प्रार्थना सभा में कुछ बच्चों का राष्ट्रीय गीत लापरवाही से गाना उसे कभी अच्छा नहीं लगता। सोचती इस ‘वंदेमातरम’ ने देश में आजादी का अलख जगाया था,यह जागरण की प्रभात फेरी हुआ करता था,जिसने सारे देश को एकता के सूत्र में पिरोया था। यह आज हम भूलते जा रहे हैं , खैर सम्मान की भावना तो मन से आती है जोर जबरदस्ती से नहीं। प्रार्थना सभा हो चुकी थी। सभी छात्र अपनी –अपनी कक्षाओं में चले गए , रजिस्टर और किताबें लेकर मिसेस आकांक्षा ने भी कक्षा में प्रवेश किया। नमस्ते बच्चो! नमस्ते मैम।

आज हम क्या पढेंगे ? मैम पहले वाला चैप्टर तो पूरा हुआ ही नहीं , क्यों उसे तो हमने पढ़ लिया है , कहाँ था आपका ध्यान ? आकांक्षा ने कहा , अरे मैम मैं तो उस दिन आया ही नहीं था। क्यों ? वो ... पार्टी में देर हो गई थी, इसलिए सोता रहा। राहुल ने कहा , राहुल पार्टी तो ठीक है किंतु आपको पढ़ाई पर भी ध्यान देना चाहिए। पहले पाठ पढ़ लीजिए फिर आपकी सहायता करुँगी , लेकिन पढ़ने की जरुरत ही क्या है मैडम बस प्रश्नोत्तर दे दीजिए शेखर ने अंगड़ाई लेते हुए कहा।

आकांक्षा कक्षा में आए बदलाव तथा दिन पर दिन गिरते अनुशासन से पहले ही खफ़ा थी , आज तो उनका पारा चढ़ गया था। आप लोग पढ़ाई को समझते क्या हो ? शिक्षा प्राप्त करने का मतलब यह नहीं कि स्कूल में हाजरी पड़ जाए और रट्टा मारकर परीक्षा पास कर लें। माता-पिता की जिस आशा से आते हो न तुम !.... मिसेस आकांक्षा कुछ कहती कि घंटी बज उठी टर्न ... टर्न ... वह खिन्न मन से पैर पटकती हुई कक्षा से बाहर आ गई। हाय ! नीरू , हाय मैम। क्या आपका लीजर है अभी ? हाँ जी। चलो न चाय पीकर आते हैं। क्या बात है मैम बड़ी परेशान नजर आ रही हैं चाय का प्याला लेते हुए आखिर नीरू ने पूछ ही लिया , हाँ आजकल पढ़ाने का बिलकुल मन नहीं करता , देखती नहीं हो बच्चे कैसे नोट्स की माँग करते हैं। कुछ समझना ही नहीं चाहते, स्वाध्ययन तो दूर की बात है , आखिर यह पीढ़ी कहाँ जाएगी?

मैम यह तो फैशन हो गया है , डोनेशन दे दो,दाखिला ले लो। करना क्या है, अंग्रेजी आ जाए,चटर – पटर , कम्प्यूटर कोर्स कर लो और क्या चाहिए ?

आज पूरा दिन आकांक्षा का मन नहीं लगा। बस आने वाली पीढ़ी और उसका आलस। यही सब सोचने में बीत गया ,छुट्टी की घंटी कब बजी पता ही नहीं चला ,पर्स उठाया और घर चल दी। सिर दर्द से फटा जा रहा था। मुँह धोया एक कप गरमागरम चाय पी और अखबार उठाया आज तो अखबार भी नहीं देखा वह मन ही मन बुदबुदाई। लिच्छवी आ चुकी थी। बीबीजी का बनाएँ, कुछ भी बना दो उसने अनमने मन से कहा , कुछ भी का मतलब का होवत है ? किती बार कह रही मुँह पीरा (पीला) पड़ गया है तनिक खुली हवा में साँस ले लिया करो। आई तब गुलाबी रंग था, चेहरे का। हमको समझत नहीं आवे कि सारा दिन किताब ,पन्नों में का करत हो तुम , बोलते-बोलते लिच्छवी बैठ गई।

यह उसके रोज की उपदेश माला थी , जब तक वह मुझे सीख न दे दे तब तक वह कोई काम शुरू नहीं करती। बस हो गया या अब और कुछ कहना बाकी है , हमको का कहना है बीबीजी ? बस सोच रहे ऐसे कैसे चलेगा ? पहाड़ सी जिंदगानी और चारो तरफ काले कोबरे, बस तोहार नमक खाया है , कह देते हैं। तुम जैसे मेम साहब को हम का सीख देबे लगे।

अरे! छोड़ इन बातों को , बता तुमने पढ़ना शुरू किया कि नहीं। यह सुनकर उसके मुँह पर ताला लग गया , घायल हिरणी सी इधर-उधर देखने लगी. अरे! क्या हुआ ? ऊ दीदी बात ई है, कि हमार मरद ने तख्ती उठा के फैंक दी और कहत रहा कि बेसरम ई उमर मां सलेट लेती है ? ई नाटक-वाटक हमरे ईहाँ ना चली, तोहार काम है खाना बनाना और हमार मुनवा का धियान रखना बस , ईं सब बातन के अलावा ईहाँ तोहार कछु काम नाहीं समझी।

   ओफ्फो ! तुम यहाँ काम करती हो , सेठजी के यहाँ काम करती हो , कमा कर देती हो फिर भी तेरे साथ ऐसा व्यवहार, घरों में काम करना बंद कर , अपने बच्चे का ध्यान रख और थोड़ा समय निकाल कर पढ़ना सीख, आकांक्षा ने समझाया। इतना सुनते ही उसका चेहरा पीला पड़ गया , उदास हो गई वह। क्यों क्या हुआ ? ऐसा क्या कहा दिया मैंने ? बीबीजी बात ई है , वो बात ई है कि हमार मरद को पीने को दारू चाहे और ना मिले तो हमार जीना मुस्किल कहते – कहते उसका पल्लू सरक गया। कंधे पर नीली – नीली धारियाँ। उफ़ ! यह क्या है , कछु नाहीं बस ये तो ....औरत जात होने की सजा है, बीबीजी और कछु नाहीं। जल्दी से उठ तत्परता से काम में जुट गई जैसे कुछ हुआ ही न हो, हम २१वीं सदी में जी रहे हैं। एक तरफ स्त्री अंतरिक्ष में कदम धर चुकी हैं, एवरेस्ट पर परचम लहरा चुकी हैं तो दूसरी ओर लिच्छवी जैसी औरतें आदम ज़माने में जीने को बाध्य हैं| आकांक्षा ने किताबों को उठा कर रखा, बिखरे बालों का जुड़ा बनाया और किचन की ओर बढ़ गई , अब तक लिच्छवी जा चुकी थी और मैं सोचती रह गई, स्त्री होने का मतलब क्या यही है ? काम करो, अपमान सहो, मार खाओ और फिर इन सब को किस्मत का जामा पहनाकर सब भूल जाओ।

घड़ी ने चार बजने की सूचना दी , आकांक्षा झट से उठी , ईश्वर की आराधना की कि हे ईश्वर आज का दिन अच्छा हो। मन की शक्ति देना, मन विजय करें .... ये पंक्तियाँ कानों में गूंज रही थी। अद्भुत शक्ति उसे आगे बढ़ा रही थी, आकांक्षा आश्वस्त थी। आज वह किसी भी घटना से विचलित नहीं होगी, हतोत्साहित नहीं होगी बल्कि कुछ ऐसे प्रयास करेगी जिससे भटके हुए बच्चों को राह दिखाएगी, वातावरण को अच्छा करेगी। बस के साथ ही विचारों की यात्रा अविरल गति से चल पड़ी थी , रोजाना की तरह सब कुछ समान ही था। कक्षा में दाखिल होते ही आकांक्षा ने चहक कर कहा , बच्चो ! आज हम राजा शिवी और दधिची के बारे में जानेंगे, पक्षी के प्राणों की रक्षा के लिए स्वयं का मांस देने के लिए तैयार हो गए थे राजा शिवी, अच्छा तो बताइए कि इस प्रसंग से हमें क्या प्रेरणा मिलती है ? आराधना ने कहा मैडम, परोपकार करना चाहिए, शाबाश ! यश आपने क्या सीखा ? मैडम राजा को ज्ञान नहीं था , एक कबूतर की जान बचाने के लिए खुद की जान जोखिम में डालना कहाँ की अकलमंदी है? और कक्षा हँस पड़ी, आकांक्षा ने जान लिया था कि कहीं कुछ घट रहा है जो इन बच्चों को प्रेम,अहिंसा,त्याग जैसे मूल्यों से दूर ले जा रहा है, वह मन ही मन दिखावे की संस्कृति को कोसने लगी। यह संस्कृति तो बच्चों के भावी जीवन को खोखला कर देगी , जंक फूड जोंक की तरह चिपक गया है इनके दिमाग में, इसी उधेड़बुन में दिन बीतते रहे। आज समाचार देखकर उसकी रूह काँप गई. दिल्ली में घटी घटना से वह पगला गई, सभी अपना क्षोभ व्यक्त कर रहे थे, आए दिन ऐसी घटनाएँ घट रही हैं उसके मूल में शिक्षा की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न लग गए हैं, हम भूमंडलीकरण के इस दौर से गुजर रहे हैं, ग्लोबल वार्मिंग की चिंता जता रहे हैं लेकिन क्या अपने पैरों में लगी आग दिखाई नहीं देती, हाँ आप बिलकुल ठीक कह रही हैं आकांक्षा जी। मि. रघु ने कहा। सचमुच माहोल गलीच हो गया है नहीं मिस आरिफा ने कहा। हाँ यह सब हो रहा है किन्तु क्या हम यूँ ही हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ? मि. कुलकर्णी बोले अरे ! मैडम यह सब ऐसा ही चलता रहेगा। आप क्यों इतना टेंशन लेती हैं हम आ रहे हैं,पोर्शन करा रहे हैं और क्या कर सकते हैं, ट्यूशन दे रहे हैं , बच्चे पास हो रहे हैं ना! ये अब उनकी किस्मत है कि वे क्या बने कैसे बने ? 

अरे ! इसका मतलब कुछ आदर्श नहीं सब प्रैक्टिकल, कोरा प्रैक्टिकल हो गया है, ये क्यों भूल जाते हैं कि समाज में यदि कुछ है तो वह आदर्श ही है अन्यथा कोरी व्यवहारिकता ने तो समाज को डुबाया ही है, हमारा कर्तव्य है कि बच्चों में संस्कार का बीज बोएं। ‘गुरु कुम्हार है, शिष्य कुंभ’ ये याद रखना होगा। आकांक्षा ने मन ही मन ठान लिया था हमें ही भटकों को रास्ता दिखाना होगा, हमें ही कुछ करना होगा।

आखिर मन में एक आकांक्षा है जो , मन में संकल्प , एक विश्वास लेकर बुदबुदाने लगी।

 होकर मायूस यों न शाम सा ढलते रहिए,

 ज़िंदगी भोर है एक, सूरज सा निकलते रहिए

इन पक्तियों को गुनगुनाती वह चल पड़ी , आकांक्षा को पूरी करने।


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