दूसरा थप्पड़। (लघुकथा)
दूसरा थप्पड़। (लघुकथा)
हाथ में दबी दवाई की एक पर्ची काउंटर पर रखते हुए महिला बोली। भाई साहब ये दवाई दे दीजिए।
दवा की शीशी और बिल खाकी कागज के लिफाफे में डालकर रामरतन गुप्ता जी बोले बहन जी दो सौ पैतीस रुपये हुए।
साड़ी के पल्लू में बंधे खुले नोटों को गिनकर महिला ने बिल चुकाया और जाने को मुड़ी तभी साथ आये करीब आठ नौ साल के बच्चे ने लिफाफा उठाने की कोशिश की, लिफाफा गिर गया दवा की शीशी चकनाचूर हो गई।
महिला का हाथ गुस्से से बच्चे के गाल की तरफ बड़ा।
अरे!अरे! बहन जी क्या कर रही है बच्चा है गलती से लिफाफा छूट गया मैं आपको दूसरी शीशी दे देता हूँ।
पर पैसे?
कोई बात नहीं ये शीशी मेरी तरफ से फ्री।
महिला और बच्चे के जाने के बाद दुकान पर काम करने वाला कर्मचारी राजू बोल पड़ा।
ये क्या किया सेठ जी सुबह सुबह दो सौ पैतीस रुपये का घाटा।
रामरतन गुप्ता गहरी सांस लेते हुए बोले, बचपन में एक दवा की शीशी मुझसे भी टूटी थी।
उस औरत ने जैसे ही थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया मुझे लगा वो थप्पड़ मुझे ही लगने वाला है।
और मैं दूसरा थप्पड़ नहीं खाना चाहता था।