दो जिंदगियाँ...
दो जिंदगियाँ...
रेडियो में भूपिंदर का गाना बज रहा था...
एक अकेला इस शहर में...
एक तो गाने के लिरिक्स और उसपर भूपिंदर की आवाज़....मैं उस गाने में जैसे खों सी गयी और सोचने लगी।कभी कभी मुझे मेरी यह जिंदगी बेवजह सी लगती है.... आजकल सिर्फ़ और सिर्फ़ जिंदगी में दुनियादारी वाली बातें ही तो होने लगी है....बस काम की बातें, जिसमे आमदनी और खर्चों का ही ज़िक्र रहता है...हर महीने की किश्तें और बस और बस उनका हिसाब क़िताब....
मेरा कवि मन कहने लगता है, काश मेरे पास एक और जिंदगी होती... बिल्कुल अलग सी जिंदगी... जिसमे प्रेम की ही दुनिया बसती। उस प्रेमिल दुनिया मे मैं तुम्हारे संग प्रेम की बातें करता। प्रेम से और प्रेम में ही हम दोनों फूलों की बातें करते....कभी बारिश की बूंदों में भीग लेते...फिर उसी बारिश वाले पानी मे बचपन वाली कागज़ की कश्ती को तैरते देख खुश हो जाते...और फिर बेवजह दोनो हँसते रहते...
लेकिन मेरे जैसे कवी की यह कल्पनाएँ ही है....इस हक़ीक़त वाली जिंदगी में बारिश के बाद इंद्रधनुष दिखता है और दोपहर हमेशा जर्द होती है....
हमें अपना मन और खुशियों को इसी हक़ीक़ी जिंदगी में ढूँढना होगा।इसी एक जिंदगी में थोड़ी दुनियादारी और थोड़ा सा प्रेम करना होगा...क्योंकि कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नही मिलता।कभी जमीं तो कही आसमाँ मिलता है...