ढोल
ढोल
अलसायी हुई सी एक सुबह जब नींद खुली कुछ बोझ सा था दिमाग पर। आंखें खोलने की इच्छा ही नहीं हो रही थी बस इसलिए कुछ देर और, कुछ देर और करते करते तकरीबन आधा घंटा और निकाल दिया। आखिर कब तक सोया जा सकता था कभी ना कभी तो उठना ही था , बस इसीलिए आंखें खोल दी।
आंखें खोल कर देखा तो मालूम हुआ कि बोझ दिमाग पर नहीं बल्कि गले में था। गले में एक बड़ा सा ढोल बंधा हुआ था। शायद किसी ने सोते हुए गले में बांध दिया था। एकाएक होंठों पर मुस्कुराहट फैल गयी और जोश ही जोश में ढोल पर दो तीन थाप जड़ दिए। कुछ मधुर और कुछ जोश से भरी आवाज़ चारो तरफ फैल गयी। लिहाज़ा कुछ और थाप भी जड़ दिए।
कुछ देर ढोल से खेलने के बाद सोचा कि चलो फिलहाल के लिए ढोल ऐसे ही रखे रहता हूँ। लगभग सारे दिन ढोल को गले में लटकाए रखा और बीच बीच में ढोल पर थाप भी लगाते रहा। रात आयी तो ढोल बजाते बजाते पता ही नहीं चला कब आंख लग गयी।
इसी तरह ढोल गले में लटकाए हुए ही तकरीबन एक सप्ताह गुजार दिया। अब ढोल की थाप सुनने का वो जोश नहीं था वैसे अब ढोल की थाप थोड़ी बेसुरी सी भी लगने लगी थी। अभी दिल भरा नहीं था बस इसीलिए उतार नहीं पाया। एक और सप्ताह गुजर गया अब ढोल गले में था उसे बजा भी नहीं रहा था उसका कोई अन्य इस्तेमाल भी नहीं था परंतु आदत हो गयी थी इसीलिए गले में डाल रखा था। बहुत जल्द पूरी तरह अहसास हो गया कि ढोल किसी काम का नहीं परंतु हाय रे मजबूरी।
इसी तरह 25 से 30 साल गुजर गए और फिर एक रात मैंने ढोल अपने वारिस के गले में डाल दिया वो भी तब जब वो सो रहा था।