चिमटी
चिमटी
आत्मा पर बडा बोझ था , जो रातों में सपना बन कर डराता था और दिन में सोच ।
अब क्या करूँ , मैं तो था ही कायर, लेकिन वह तो समझदार थी, उसे अपनी जान देने की क्या ज़रूरत थी।वह मरकर मुक्त हो सकी भला क्या? और मै जीकर भी मुक्त हो पाया भला क्या उसकी यादों से। क्या करूँ? कहाँ जाऊँ ?कैसे इस अपराध बोध से मुक्ति होगी ?
इन्ही बातों की सोच में डूबता उतराता विपुल बान की खरखटी खटिया पर बैठा कभी एक छेद मे हाथ डालता कभी अदबाइन के सहारे सहारे अंगुलियाँ किसी और छेद में जा ठहरती ।जैसे सोच के कई खाने बने हो और उनमें से किस खाने में ग्लानि की भरपाई का मल्हम मिलेगा अंगुलियाँ टोहकर ढूँढ़ना चाह रही हों। "आऊच... " कह कर उसने हाथ खींच लिया बान की फाँस अंगुली के माँस में धँस चुकी थी ।वह नाखूनों की चिमटी बना कर फाँस निकालने का भरसक प्रयत्न कर रहा था लेकिन फाँस थी कि अन्दर ही अन्दर टूटती जा रही थी ।फाँस माँस मे धँस चुकी थी बहुत दर्द और चीसन बढ गयी थी। अब तो इसके लिये बाज़ार से चिमटी ही लानी पड़ेगी तब कही जाकर...
कहकर विपुल तर्पण के लिये जल , काले तिल , जौ , फूल की थाली , कुश की पैंती और सफेद फूल अंजुली में भर कर बैठा।
" आप पिछले कई सालो से किसका तर्पण कर रहे है भगवान की कृपा से माँ बाऊ जी सभी कुशल मंगल से है, तो...?"
पत्नी जिज्ञासा और प्रश्न चिन्ह की प्रतिमूर्ति सी बनी खड़ी थी।
विपुल अपनी फाँस लगी अंगुली की चीसन दबाते हुये बोला ; " तर्पण कहाँ है यह , यह तो मन की फाँस की चिमटी है , और अंजुली भरे पानी में दो आँसू टपक गये।
