बुढ़ापे की सनक
बुढ़ापे की सनक
हमारी अम्मा जी यानि मेरी दादी जी भी बस कमाल हैं।जिस बात पर अड़ गयीं ,तो अड़ गयीं।फिर उनके निर्णय से कोई उन्हें टस से मस नहीं कर सकता।
कई बरसों से अपने ठाकुर जी का भोग वे स्वयं अपने हाथों से बनाती हैं। घर के सभी लोग उन्हें कई बार कह चुके कि उनकी उम्र हो गयी है, अब आराम करें।वैसे भोग बनाने के अलावा वे कोई भी काम नहीं करती थीं।कोई छोटा सा भी काम बोलो तो झट मना कर देतीं हमेशा बहाना तैयार कि हाथ में दर्द है, सर चकरा रहा है, पीठ की नस चढ़ गई वगैरह वगैरह।लेकिन अपने कान्हा के भोग बनाने के लिए खूब चुस्त हो जाती।निगाह कम होने की वजह से डॉक्टर ने भी उन्हें रसोई में काम करने से मना किया है।लेकिन अम्मा जी का कहना था कि ये डॉक्टर तो यू ही कुछ भी कहते रहते हैं।
अभी पिछले हफ्ते की बात है अम्मा जी की एक आंख का मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया गया।डॉक्टर ने खास हिदायत दी कि आँच से दूर रहना है।
अम्मा जी को भला कौन समझा सकता है।वे तो वैसे ही बड़ी दुखी थी कि एक दिन ठाकुर जी को भूखा रहना पड़ा।मां ने अम्मा को बताया भी था कि भोग लगा दिया गया था लेकिन अम्माजी को कहाँ चैन ! "मेरे लड्डू गोपाल को मेरे हाथ का ही खाना पसंद है-" अम्माजी का तर्क था।
दोपहर के भोजन के बाद सभी अपने अपने कमरों में विश्राम कर रहे थे।अम्माजी ने रसोई में जा कर खीर बनाई।लल्ला से खूब बातें की।और प्यार से खीर का भोग लगाया।अब तक खीर की गंध सबकी नाक तक पहुंच चुकी थी।अम्माजी ने सभी सदस्यों के लिए खीर परोस दी थी।एक चम्मच मुहँ में डालते ही सब थू थू करने लगे।अम्मा जी ने कम दिखाई देने की वजह से खांड की जगह नमक डाल दिया था। अम्माजी हैरान थी।मेरा छोटा भाई बोला," अब इस काम से भी छुट्टी कर लो अम्माजी।आज के बाद तुम्हारे लड्डू गोपाल भी तुम्हारे हाथ का नहीं खाने वाले"।
अम्मा जी कहाँ मानने वाली थी।बोली," मजाल है ठाकुर जी की जो न खाएं।जब तक जीती हूँ, भोग तो मैं ही बनाउंगी".