बरगद की छाँव
बरगद की छाँव
आज बरसों बाद गाँव लौटा हूँ।पिता जी की अंतिम इच्छा थी कि उनकी राख उनके खेतों में मिला दी जाए ताकि जिस मिट्टी में लोट लोट कर बड़े हुए उसी में मिल जायें। 15 साल की उम्र तक इसी गाँव में रहा था मैं। इसी मिट्टी में मैं भी पला बढ़ा।किसान पिता जी- तोड़ मेहनत करते।मैं दादा जी की उंगली पकड़ पूरे गाँव का चक्कर लगा कर आता।
फिर बूढ़े बरगद की छांव में दादा जी की अपने दोस्तों संग महफ़िल जमती।हुक्का गुड़गुड़ाते, राजनीति, घरपरिवार के विवाद ... और जाने कितनी ही बातें होती।हम बच्चे, बूढ़े बरगद के नीचे अपने खेल खेलते।मैं उच्च शिक्षा प्राप्त करने अमरीका चला गया।मेरी पत्नी नीति वहीं डॉक्टर है।दादा जी के गुज़रने के बाद मां जी, पिता जी को मैं साथ ले गया।उनका वहाँ बिल्कुल दिल न लगता लेकिन पोता पोती की देखभाल को अपनी ज़िम्मेदारी समझते थे।और एक दिन अचानक जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा।घर में डॉक्टर होते हुए भी उन्हें बचाया नहीं जा सका।
और आज गाँव में उसी बरगद की छाँव में खड़ा हूँ। अकेला....
समय बदल गया है। अपने घर को मैं पहचान ही नहीं पाया।विश्वास नहीं होता कभी इस घर में कितनी रौनक थी!गांव भी बहुत बदल गया है।घर घर पर डिश एंटीना दिखाई दे रहे हैं।
बच्चे शायद घर मे टी वी देख रहे होंगे।युवा मोबाइल पर व्यस्त होंगे।बुज़ुर्गों को शायद मेरी तरह उनके बेटे उनकी जड़ों से अलग कर के ले गए होंगे।
मुझे बूढ़े बरगद का अकेलापन गहराई तक महसूस हुआ।
बरगद और बूढ़ा हो गया है।लेकिन उसकी छाँव अभी भी उतनी ही घनी और ठंडी है
जितनी बरसों पहले थी।