Krishna Bansal

Others

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भूली बिसरी यादें संस्मरण- 5

भूली बिसरी यादें संस्मरण- 5

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एक और विशेष बात जिसे मैं जीवन भर नहीं बुला पाई हूं। हम तीन बहनों के उपरांत हमारा एक भाई हुआ था। जब मां पांचवीं बार गर्भवती हुई तो उम्मीद यही थी इस बार फिर बेटा होगा। उन दिनों यह रिवाज़ था एक लड़का तो चाहिए ही, जोड़ी बन जाए बेटों की तो और भी अच्छा। जोड़ी बनाने के चक्कर में हमारी छोटी बहन आ गई। मां और हम भाई बहनों की देखरेख हेतु डिलीवरी के समय हमारी नानी हमारे यहां आ गईं। जैसे उसने लड़की पैदा हुई तो उसने प्रतिक्रिया ज़ाहिर की। अभी लड़कियों की कमी थी क्या, एक और आ गई। घर में जैसे उदासी का वातावरण था छा गया। मैं छोटी ज़रूर थी केवल नौ बरस की पांचवीं में पढ़ती थी बहुत भावुक किस्म परन्तु समझदार थी। मन में बैठ गया इस नन्ही लड़की को यहां कोई प्यार करने वाला नहीं है।

वह अलग बात है बाद में सबसे अधिक प्यार इसी बहन को मिला। पता नहीं कैसे, मैं इस नवजात कन्या की सरंक्षक बन गई। मन में ऐसा भाव बना लिया कह कर तो देखें इसे कोई कुछ।इससे पहले की भी कुछ घटनाओं का भी प्रभाव रहा होगा अब मैं पूरी तरह से लड़कियों के पक्ष में खड़ी हो गई। मन में विद्रोह के विचार उठते थे।

 हमने कोई गुनाह थोड़े ही किया है लड़की बन कर।पिताजी का सुबह नाश्ते के बाद दुकान पर चले जाना, हमारी भिन्न भिन्न तेलों की दुकान जैसे सरसों,नारियल, अलसी, तारामिरा इत्यादी कई प्रकार के तेल और रात आठ बजे घर लौटना। घर की मैनेजमेंट में तो उनका कोई लेना-देना नहीं था। उनका काम था घर के सामान की जिम्मेदारी जो वह खूब शिद्दत से निभाते थे।

सो मां को ही पांच बच्चों को देखना घर की सफाई, किचन का काम, कपड़े धोना, वगैरह- वगैरह करना होता था। जब कभी हम इस छोटी बच्ची ने मां को तंग करना तो मैं उसे गोद में लेकर बैठ जाती। थोड़ी बड़ी हुई तो शाम को गली में खेलने जाते समय उसे साथ रखना, उसे बोतल से दूध पिलाना, उसे खाना खिलाना सब अपने ऊपर ले लिया।मां ने कभी उसे थप्पड़ मार दिया तो उसे उठाकर भाग जाना। ऐसा लगता था जैसे मैं उसकी दूसरी मां बन गई हूँ। अभी भी हम दोनों बहनों में बचपन वाला प्यार झलकता है। फर्क इतना पड़ गया है पहले मैं उस पर प्यार न्यौछावर करती थी अब वह मेरी अभीक्षक बन गई है। चूंकि वह कैलेफोर्निया में रहती है और मैं भारत में। जब भी मुलाकात होती है और साथ रहने का अवसर मिलता है वह ऐसे बर्ताव करती है जैसे वह बड़ी हो और मैं छोटी।अभी कुछ महीने पहले हम नेपाल घूमने गईं दोनों तो वाकई ही मेरा बहुत ध्यान रखा।


एक बार वह गुम हो गई। उन दिनों फिल्मों का विज्ञापन बैंड बाजे व ढोल ढमाके के साथ होता था। मुन्नी, यह उसका बचपन का नाम था उनके पीछे चल पड़ी। मैं ही उसे अपने साथ खेलने के लिए ले कर गई हुई थी वह कब उनके पीछे चल पड़ी पता ही नहीं चला। जब ढूंढने पर कहीं नहीं मिली तो मां को बताया। भाग कर मैंने ही इस बात की सूचना पिता जी को दी। सब जगह उथल पुथल मच गई। उन दिनों चूंकि अधिक बच्चे होते थे कोई न कोई गुम हुआ रहता था। ढिंढोरा वाले की सुविधा मिल जाती थी। ढिंढोरा पीटने वाला बुलाया गया। दो घण्टे की भाग दौड़ के बाद एक सुराग मिला कि फलां घर में एक बच्चा है जिसको बाज़ार से लाया गया है। वहां पहुंचने पर पता चला कि उनके पास कोई लड़का है। पिता जी ने कहा दिखा तो दो हमारी लड़की के कपड़े लड़कों वाले हैं। बहुत मिन्नत के बाद वह लड़की को ले कर आए बच्ची भाग कर पिता जी से लिपट गई। स्पष्ट हो गया था कि बच्ची हमारी है। जैसे ही हम घर पहुंचे मां का रो- रो कर बुरा हाल था। बेटी को गोद में लेकर बार बार उसे प्यार कर रही थी। मुझे एहसास हो गया था कि मैं बेकार में ही मां के प्यार पर प्रश्न चिन्ह लगा रही थी। समझ में आ गया कि मां मां होती है, मां सदैव सब बच्चों पर एक सा प्यार लुटाती है। 

मैं स्कूल टाइम से ही सैर की शौकीन रही हूँ। मुझे सैर के लिए यही बहन साथी के रुप में मिली। सुबह सवेरे अंधेरे मुंह सैर के लिए निकल जाना, कभी कभी शाम को भी और यह मेरी आदत अभी तक कायम है । हम दोनों बहनों को आपस में इतना लगाव था, जब शादी के समय मेरी विदाई का वक्त आया तो वह इतनी उदास हो गई। ज़ोर ज़ोर से रोना शुरु कर दिया। किसी ने कह दिया तू भी साथ चली जा वह भी एकदम तैयार हो गई।


क्योंकि कसौली पहाड़ी इलाका है उन दिनों वहां घर तक कार नहीं जाती थी। अब तो खैर जाती है।उन दिनों वहां आदमी चालित रिक्शा चलती थी। छोटी सी रिक्शा में केवल दो जने बैठ सकते थे। मुझे और सुदेश को उस रिक्शा में बिठा दिया गया और दूल्हे मियां पैदल चल पड़े।


इसके बाद भी जब हम मैं और मेरे पति कहीं घूमने जाते थे तो सुदेश सदैव हमारे साथ ही जाती थी। 



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