भूख
भूख
घर के लोग उसे भुक्कड़ कहते थे। वह भी समझ नहीं पाता था, कि क्या करे? दस-दस रोटियां खा जाता, फिर भी लगता कि दो-चार रोटियों को गुंजाइश बनी ही हुई है। "अभी तेरहवाँ लगा है तो ई हाल है, कि आधे में अजगर और आधे में भर घर।...थोड़ा और बड़ा होगा तो हम सभी को जिन्दा भकोस जायेगा माँ अक्सर ऐसा उसे खिलाते हुए बड़बड़ाती और उसकी भूख थी कि बढ़ती ही जाती। इधर महीनों से भोज-भात का भी कोई न्यौता नहीं मिल सका था। घर में दस रोटियों से ज्यादा कभी मिल ही नहीं पाती उसे। गिनकर सिकती थी रोटियां। अकेले उसके लिए में पूरा दस और दस बाकी घरवालों के लिए।
महीनों से भीतर ही भीतर नित्य बढ़ती जाती भूख को कम-से-कम एक बार पूरी तरह मात करने की अभिलाषा में उसने भारी मन से अपनी गणित और विज्ञान की किताबें बेच दी। बीस रुपये पॉकेट में समाते ही उसे नशा-सा आने लगा, पिटने से बचने का भी एक ठोस बहाना गढ़ चुका था वह- चोरी चली गयीं है किताबें।
ढाबे में सब्जी-रोटी का आर्डर देने के बाद, वह मेज पर तबला बजाने लगा था। बीस रुपये में तो मन भर रोटियाँ खा ही सकता है वह। दाल-सब्जी के साथ-साथ मिर्च मुफ्त में वाह !
ता...ता.:...चिन्नऽ...धिन्नऽऽ ..। इस दफा ताल मेज से नहीं, उसके हृदय से निकली थी। पहली रोटी तो वह इत्मीनान से खा गया। दूसरी रोटी खाते हुए गणित और विज्ञान की किताबों के एक-एक पन्ने, माँ का रुखा, उदास चेहरा, पिता की कातर, बेबस निगाहें तथा छोटे भाई-बहन की बहती नाक, मैले कपड़ों के साथ-साथ और भी बहुत कुछ नाचने लगा उसकी आँखों के सामने।
तीसरी रोटी बैरा बिना पूछे ही डाल गया। उसकी इच्छा हुई थी, कि मना कर दे, पर न तो हाथ हिल सके न होंठ ही फड़क सके। अब उससे नहीं खाया जा रहा था। कहां गई सारी भूख? थके कदमों से घर लौटते हुए वह यह सोचकर हैरान था, कि लाख कोशिशों के बावजूद तीसरी रोटी से एक निवाला भी वह तोड़ क्यों न सका?
