बेजुबान
बेजुबान
वह ट्रेन से उतरा, तो बारिश हो रही थी। उसने छाता निकाल लिया और स्टेशन से बाहर निकलकर सड़क पर आ गया। सड़क पर आवागमन कम हो गया था। थोड़ी दूर चलकर, रहमान चाचा के चाय की दुकान की बगल से एक रास्ता रेलवे लाइन के किनारे-किनारे उसके घर की ओर जाता था।वह सड़क छोड़कर उस रास्ते की ओर मुड़ने ही वाला था कि तेज कड़क के साथ बिजली चमकी। अचानक उसकी नजर सड़क के उस पार गयी। उसे लगा वहाँ कोई गिरा हुआ है। पास जाकर देखा, तो एक कुत्ता अधमरा-सा पड़ा हुआ था। कोई कार या बाईक वाला उसे धक्का मारकर चला गया था।
" स्साले....किस तरह गाड़ी चलाते हैं ? " उसके मुँह से गंदी-सी गाली निकल गयी।
कुत्ते के शरीर पर चोटों के निशान थे, जिनसे खून बह रहा था।बारिश में वह बुरी तरह भींंग भी गया था। उस पर दया आ गयी उसे।उसके सिर पर हाथ फेरा, तो धीरे से उसने आँखेंं खोलीं। उसने उसे गोद में उठा लिया और लेकर घर की ओर चल पड़ा। घर पहुँच कर तौलिए से कुत्ते के पूरे शरीर को पोंछकर सुखाया। उसके घावों को साफ किया और अच्छी तरह से मरहम-पट्टी कर उसे एक बोरे पर लिटा दिया। रूम हीटर जलाकर वह उसके पास ही बैठ गया और उसके शरीर को सहलाने लगा....। करीब आधे घंटे बाद, जब कुत्ते ने आँखें खोलीं, तो उसकी जान-में-जान आई। उसने उसे बिस्किट खाने को दिया और कटोरे से पानी पिलाया। उसने उठने का प्रयास किया, मगर चोट की वजह से उठ नहीं पाया।अपने पट्टी लगे पैरों और शरीर को देखा, फिर सिर उठाकर उसे देखने लगा, और देर तक देखता ही रहा...।
" मोती " नाम रख दिया था मोहन ने उसका। मोती को उससे गहरा लगाव हो गया था। उसका भी एक आत्मीय रिश्ता बन गया था मोती के साथ। उसके अकेलेपन का साथी बन गया था मोती। मोती के बिना, उससे बात किए बिना उसका मन ही नहीं लगता था। जब वह घर में होता, तो मोती उसके आस-पास ही डोलता रहता।
पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद, मोती उसके साथ मॉर्निंग वॉक पर जाता, पार्क मेंं घूमता-खेलता-कूदता, बाजार भी जाता। और, रात में खाना खाने के बाद छत की ओर जाने वाली सीढ़ी के नीचे अपने बोरे पर लेट जाता। सारा दिन मोती कहीं भी रहता, मगर उसकी रात मोहन के घर में ही गुजरती। उस बेजुबान ने मोहन से जन्मों-जन्मों का रिश्ता जोड़ लिया हो जैसे...।
सुबह ऑफिस जाने के लिए मोहन जब घर से निकलता, तो मोती भी उसके साथ-साथ चल पड़ता... कभी मोहन के आगे, कभी पीछे। कभी वह आगे चलते-चलते दूर चला जाता, तो मुड़कर देख लेता कि मोहन आ रहा है या नहीं। वह मोहन के साथ रेलवे प्लेटफार्म तक जाता। ट्रेन के आने तक उसके पास ही बैठा रहता।ट्रेन में चढ़कर जब मोहन हाथ से इशारा करता, तब मोती घर की ओर लौट जाता।मोती और मोहन की यह रोज की दिनचर्या हो गयी थी !
इंसान से बेहतर तो ये जानवर हैं, जो जरा-सा स्नेह, अपनत्व और विश्वास मिलने पर अपने पालक के लिए अपना जीवन, अपना सर्वस्व तक अर्पण कर देेेते हैैं। और इंसान ? हुँह...! वह कहाँँ मुकाबला कर सकता है इन बेजुबानों का ? मोहन जितना ही सोचता, उतनी ही गहराई से जुड़ता जाता मोती से....!
मोहन उस दिन शाम को जब ऑफिस से घर आया, तो फोन पर किसी से बातें कर रहा था और परेशान था। मोती ने भी भाँप लिया था। बाहर बूँदाबाँदी शुरू हो चुकी थी। मोहन जल्दी-जल्दी अपना सामान पैक करने लगा, तो मोती " कूँ..कूँ " करता हुआ उसके आगे-पीछे घूमने लगा, मानो उससे कुछ पूछना चाहता हो, उसकी परेशानी जानना चाहता हो ! मोहन ने उसका सिर सहलाते हुए जब उसकी आँखों में झाँका, तो मोती सब समझ गया जैसे....! बूँदाबाँदी तेज बारिश में तब्दील होने लगी थी। छाता लेकर, दरवाजे में ताला लगा मोहन बाहर निकला, तो मोती भी हमेशा की तरह उसके साथ-साथ हो लिया। मोहन ने मोती को मना किया। कहा - " तुम यहीं रूको। बाहर बहुत तेज बारिश हो रही है।भींग जाओगे।रात भी हो गयी है। "
मोती ने सिर हिलाया, मानो कह रहा हो - " नहीं।मैं भी चलूँगा...। "
कोई उपाय न देख, मोहन चल पड़ा।वह आगे-आगे, मोती पीछे-पीछे। एक तो अँधेरी रात, ऊपर से मूसलाधार बारिश। पर क्या करता वह ? जाना भी जरूरी था। पिताजी की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गयी थी और घर में माँ अकेली थी।
रेलवे लाइन के किनारे-किनारे स्टेशन जाने का फिसलन भरा रास्ता.... एक ओर रेल की पटरियाँँ, दूसरी ओर झाड़ियाँ और बीच में लोगों के आने-जाने से बनी पगडण्डी।
अचानक पीछे से " भौं..भौं " करता हुआ मोती तेजी से मोहन के सामने आ गया, और टूट पड़ा उसके पैरों के पास रेंगती हुई उस चमकीली-सी चीज पर....।
उसके बाद मोहन कुछ देख नहीं पाया। उसकी आँखें मुँद गयी थीं.....।
जगमोहन को होश आया, तो वह अस्पताल के आईसीयू में था।बगल में खड़े रहमान चाचा ने बताया कि उस रात वे दोस्तों के साथ अपनी चाय की दुकान पर ही थे जब अचानक मोती दौड़ता हुआ उनके पास आया था और जोर-जोर से भौंकने लगा था। वह उनकी लुंगी पकड़कर झाड़ियों के पास ले आया, जहाँ तुम बेहोश पड़े थे, और बगल में विषधर साँप पड़ा था....मरा हुआ। पूरे दो दिनों बाद होश आया है तुम्हें। मोती न होता, तो भगवान जाने क्या....!
मोहन ने हाथ जोड़ लिए रहमान चाचा को धन्यवाद देने के लिए, तो उन्होंने दरवाजे की ओर इशारा किया। दो दिनों से आईसीयू के दरवाजे पर बैठा मोती बेसब्री से उसके होश में आने की प्रतीक्षा कर रहा था !
मोहन ने बाहें फैलाईं, तो मोती दौड़कर उसके पास आ गया, उसके सीने से लिपट गया और उसे बेतहाशा चूमने लगा।मोहन भी मोती से लिपटकर फफक कर रो पड़ा।उसकी आँखों में मोती के प्रति कृतज्ञता के आँसू थे।
सचमुच, इंसान और बेजुबान जानवर दोनों ही संवेदनाओं की एक ही डोर से बँधे हुए हैं। कौन कहता है कि जानवरों की संवेदना इंसान की संवेदना और भावना से अलग होती है ? संवेदनाओंं, अहसासों और अनुभूतियों की इसी गीली मिट्टी से तो सृष्टि का सृजन हुआ है और यह सृष्टि चैतन्य है ? काश ! जितना प्रेम बेजुबान जानवर एक इंसान से करता है, वैसा ही नि:स्वार्थ प्रेम इंसान भी, इंसान से करता ? मोती और मोहन का नैसर्गिक प्रेम देख, रहमान चाचा यही सोच रहे थे और उनकी भी आँखें भर आई थीं।