अफ़साना कील का
अफ़साना कील का
जंग लगी कील का सिर दीवार के बाहर झाँक रहा है। घड़ी के पीछे छुपी कील उदास और रुआँसा चेहरा मुझे ख़ास पसन्द नहीं आया।एक अज़ीब सी मनहूसियत कमरे में फैली हुई है। एक उदासी, पर उसी उदासी में दबा अपनापन। पलंग को खोल कर टुकड़ों में ले ज़ाया जा रहा है।
धूल के दल यहाँ -वहाँ से निकल कर कमरे पर अपना -अपना दावा ठोंक रहे हैं। झाड़ू भी मानो धूल -रेशों से सन्धि कर ली है। झाड़ू निठल्ली सी कोने में पड़ी है। धूल लिपटे रेशे पुराने पंखे की हवा के साथ इधर -उधर डोल रहें हैं।कुल मिला कर एक अज़ीब नजारा।
उदास कील न जाने क्यों दीवार के साथ -साथ मानो मुझे भी चुभ रही है। सबकी नज़र बचा कर मैंने धीरे से कील को सहलाया। वो भरी पड़ी थी, मेरे छूते ही फट पड़ी " यह कोई बात हुई, इतने सालों का साथ कोई कैसे एक पल में छोड़ सकता है।" चौबीस घण्टे में ही थी, जो उसकी सुनती रहती। हर वक़्त टक -टक, मैंने कितने सालों तक उसका बोझ उठाया बिना किसी शिकवे -शिकायत के। कील ने एक गहरी साँस ली, मेरी आँखों में सीधे देखते हुए बोली, " जब नयी नयी आयी थी घर में, कैसे मारी -मारी फिरी थी दो दिन तक, कभी डाइनिंग टेबल पर, कभी सोफ़े पर। दो दिन बाद मेम साहिब ने मुझे देख कर उसको पक्का ठिकाना दिया। पूरे पाँच साल मुझ से चिपक कर रही। अब चली गयी नया घर देखते ही, " मिल गयी होगी कोई सुन्दर सी नयी कील, टंग जायेगी उस पर, बेवफ़ा कहीं की "। मैं अब बदरंग और बूढी हो गई हूँ,मुझ से क्यों दोस्ती रखेगी अब ?" "पर एक बात बता दूँ !!, कील ने गहरी साँस ली ! उसकी टक -टक हर कोई नहीं सुन पायेगा" यह कहते हुए कील मानो खो सी गयी, जैसे ख़ुद उसको अपनी ही बात पर यक़ीन न हो।
मैंने एक बार फिर से उसे छुआ, बहुत धीमे से पूछा " किस की बात कर रही हो ? " उसका दर्द मुझे भीतर तक हिला गया।
" जैसे तुम कुछ जानते ही नहीं ?? उसने शिकायती लहजे में बोला। तुम ही तो हो,जो उस सुनहरी दीवार घड़ी को प्यार से लपेट कर नए घर में ले जा रहे हो। शाम को कितने सम्भाल कर उतारा था तुमने, मैंने सोचा बैटरी ख़त्म हो गयी, बदल कर फिर से लटका दोगे ! पर जब तुमने उसका डिब्बा निकाला तभी मेरा माथा ठनक गया, फिर भी एक उम्मीद थी कि मुझे भी साथ ले चलोगे। "और वो बेवफ़ा सुनहरी घड़ी !!, कील ने मुँह बिचकाया, " कैसे अख़बार में लिपट कर डब्बे में बैठ गयी, मानो कोई दुल्हन डोली में बैठ गयी हो। एक बार मुड़ कर भी नहीं देखा,मैं पागल एकटक उसी को देखती रही, डिब्बे का ढक्कन बंद होने तक। रात भर डिब्बे को निहारती रही, कान लगाये सुनती रही कि टक -टक बोलेगी, पर देखो उसका घमण्ड एक बार भी नहीं बोली।
" मैंने उसकी बैटरी निकाल दी थी ना ! मैंने कील को समझाया।
" तुम तो उसकी ही तरफ़दारी करोगे, वो तुम्हारे साथ रहेगी। मुझ से क्या फ़ायदा तुम्हें ? कील ज़ोर -ज़ोर से रोने लगी।
रोना बंद करो, मैं कुछ करता हूँ। मैं सोचने लगा।
कील उम्मीद भरी नज़रों से मुझे देख सुबकती रही।
सुनो ! तुम्हें थोड़ा दर्द सहना पड़ेगा, निकालते हुए हो सकता है तुम्हें लगे, पर यही एक रास्ता है। मैंने गम्भीरता से कहा।
" मैं तैयार हूँ" कील जोश से बोली।
मैंने उँगली होंठों पर रख उस को चुप रहने का इशारा किया। " मालती सुनो ! एक बात बताना भूल गया, प्लास देना जरा ! मैंने भूलने का नाटक करते हुए अपनी पत्नी को आवाज़ दी।
"अब प्लास का क्या करोगे ? मालती झुंझलाई।
" डब्बू पण्डित ने कहा था, सुनहरी घड़ी ज़रूर ले जाना। तुम्हें याद है ना मालती इस सुनहरी घड़ी के घर में लगाने के बाद, हमारी सारी मुसीबतें ख़त्म हो गयी थी।"
कर तो ली पैक तुम्हारी सुनहरी घड़ी, तुम ख़ुद पैक किये हो रात को। मालती झुँझलाती हुई बोली।
"डब्बू पंडित जी ने कहा था जिस कील पर घड़ी टंगी है, उसको भी ले जाना, घड़ी को उसी कील पर टांगने से शुभ रहेगा "। मैंने कील की तरफ़ आँख दबाते हुए कहा। कील धीमे से मुस्कुरा दी।
" तुम और तुम्हारा डब्बू पाखण्डी, यह लो मालती प्लास पकड़ाती हुई बोली।प्लास को वापिस गत्ते में रख देना और अब मुझे फ़ालतू के कामों के लिए आवाज़ मत देना। रसोई में बहुत काम पड़ा है।
ठीक !! तुम जाओ। मैं स्टूल पर चढ़ कर कील निकालने लगा।
" आह ! कील की कराह निकल गयी।
" बस, जरा सा दर्द होगा।मैंने सावधानी से कील को खींच लिया।
थैंक यू !! कील के मुँह से निकला।
मैंने मुस्कुरा कर उसको घड़ी के डिब्बे में पैक कर दिया।
दोनो सहेलियाँ फिर से मिल गईं।
थैंक यू, डब्बू पण्डित। मैंने मन ही मन डब्बू जी को धन्यवाद दिया।