अंगूर खट्टे हैं!
अंगूर खट्टे हैं!
राजेश और विजय बचपन से ही साथ पढ़े थे। नैना भी उनकी सहपाठिनी थी। हाईस्कूल के बाद सबका साथ छूट गया। किसी ने आर्टस लिया तो कुछ साइंस पढ़ने लगे। आगे की पढ़ाई करने युनिवर्सिटी आए तो फिर से इनकी तिगड़ी दोस्ती जमने लगी। हमारी जान-पहचान इसी दरम्यान हुई थी। सब यही जानते थे कि ये अच्छे दोस्त हैं। फिर कुछ सालों के लिए हम सभी व्यस्त हो गए। भला हो इंटरनेट की संचार क्रांति का कि सारे बिछड़े मित्र फिर से मिल गए।
जब मेरी बात राजेश से हुई तो एक-एक करके सबकी जानकारी मिली। "नैना कहाँ है और कैसी है? कुछ उसके बारे में बताओ।"
"छोड़ो उसकी बातें!" कहकर फोन काट दिया था।
जहाँ तक मैं नैना को जानती थी, वह काफी बिंदास किस्म की लड़की थी। उसे बिना सोचे समझे बोलने की आदत थी। शायद इन्हीं कारणों से मनमुटाव हो गया होगा। कुछ दिनों बाद जब उसके बारे में जानने के लिए फोन किया तो सीधा जवाब आया कि, "वह कैरेक्टरलेस है।" यह सुनकर मेरे कान गर्म हो गये थे। एक स्त्री होने के नाते किसी स्त्री के चरित्र पर आक्षेप सर्वथा अनुचित लगा। दिल कड़ाकर प्रश्न किया कि "तुम ये कैसे कह सकते हो?"
"मरीन इंजीनियर से शादी हुई। पति छ: महीने पर आता है। बड़े से घर में अकेली रहती है। एक बेटी है छोटी सी। पता नहीं अकेली क्या करती है? किससे मिलती है?"
"वह स्वयं बेटी है, पत्नी है, माँ है। इन सब रिश्तों में घिरी वह अकेली कहाँ है?" पति की विदेश की नौकरी के दौरान मैंने भी कई साल अकेले बिताए थे। घर, बच्चे व स्कूल के काम कम नहीं होते। पति का साथ ना मिले तो सब कुछ अकेले निपटाने पड़ते हैं। मुझे उसकी दलीलें समझ में ना आईं तो मैने विजय से नैना का फोन नम्बर लिया।
" कैसी हो नैना?"
"बहुत अच्छी! तुम अपनी सुनाओ।" हमारी घंटों बातें हुईं। नई-पुरानी सारी बातें करते हुए जब क्लासमेटस की बात चली तो सिक्के का दूसरा पहलू जान पाई।
"तुम हॉस्टल वाले लोग तो अपने घर चले गए। मैं लोकल थी। सब मेरे घर चाय पीने व गप्पें मारने पहुँच जाते थे। शादी के पहले चल जाता था पर बाद में जिंदगी कितनी बदल जाती है ना! एक दिन नैना-नैना करते हुए राजेश मेरे घर आ टपका। अगले दिन पति छ: महीने की पोस्टिंग के लिए निकल रहे थे। मैं उन्हीं की तैयारियों में लगी थी। थोड़ी देर बाद मिलने आई तो देखा, गायब था।"
"समय लेकर नहीं आया?" "इतनी समझदारी तो दूर की बात थी। पुरानी आदतें जानती ही हो। उधर से गुजरते हुए बस टाइम पास करने के लिए पहुँचता था। आगे की बात सुनो। अगली बार विजय के साथ आया। मेरी किटी पार्टी चल रही थी। पार्टी के बाद आई तो गुस्से से बड़बड़ाते हुए वह बाहर निकल गया। उसके बाद से कोई बात नहीं हुई।"
"ओह! पर तुम अच्छे दोस्त थे।"
"दोस्त होता तो धैर्य रखता। अकेली रहती हूँ, इसका मतलब यह तो नहीं कि खाली हूँ। मैं अपने-आप को किटी में बिजी रखती हूँ और फिर किसी के समय पर इतना अधिकार कोई कैसे जता सकता है? सबकी शादी हो गई है, अपना परिवार हैं, बच्चे हैं, जिम्मेदारियां हैं।"
"सही कहा, दोस्ती की अपनी सीमाएं होती हैं। बिना बात चरित्र पर लांछन लगा कर तो उसने दोस्ती भी ना निभाई।"
"बिल्कुल सही! सच कहूँ तो इन्हीं कारणों से दूरियाँ बना लीं। पुरुष मानसिकता नहीं बदलने वाली। स्वयं चाहे हर घर में झांकेंगे फिर भी खुद को क्लीन चिट देंगे पर औरों को बैठे-बैठाए चरित्र का प्रमाण पत्र देने से बाज नहीं आएंगे।"
"अच्छा किया, ऐसे दोस्तों से अकेले होना बेहतर है।"
नैना से पूरी तरह से सहमत थी। उसने जो बताया वह बेहद मनोरंजक था। अकेली जानकर कोई समय बिताने पहुँचे और मेजबान व्यस्त निकले तो अपना सा मुँह लेकर लौटने वाले की स्थिति खिसियानी बिल्ली के समान होती है जो खंभा नोचने लगती है। राजेश की बौखलाहट की वजह समझ में आ गई थी। जबतक महत्व देती रही, वह अच्छी थी। जब अपनी प्राथमिकताओं को देखने लगी तब बुरी हो गई। राजेश ने अपनी गलतियां नहीं देखी। दोस्त होने के नाते पहले उसकी परिस्थितियों को समझता। जबरदस्ती अधिकार नहीं जताता। अभिमान आहत हुआ तो उसके कैरेक्टर पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। उसकी हरकतें बचपन में पढ़ी उस कहानी की याद दिलाती हैं कि अंगूर ना मिलने पर लोमड़ी यह सोच कर संतोष करती है कि 'खट्टे हैं अंगूर'!!
