अग्निपरीक्षा कब तक?

अग्निपरीक्षा कब तक?

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रामायण के काल से आज तक सीता माता हमेशा ही परीक्षा देती आयी है। ये कथा कब तक माता की ही व्यथा बनी रहेगी, इस सवाल का जवाब देने के लिये ही शर्तिया तौर पर इस कलियुग का सृजन हुआ।


आसमान में गहरा अंधेरा पूरा काला सज चुका था। द्विज बस घर में दाखिल ही हुआ था-

"हैल्लो!" माँ की भारी सी आवाज जैसे ही द्विज के कानों में पड़ी, रोज का रटा-रटाया सवाल सीधा उसकी जुबान पर था-

"हाँ, हैलो माँ, क्या हाल है?" 

बेटे के सवाल का तो माँ के पास वही रोज वाला ही जवाब था-

"हाँ, सब अच्छा ही है। तुम कहो, तुम्हारा खाना-पीना हो गया?"

माँ जानती थी, नौकरी के चलते द्विज को पहली बार घर से दूर दूसरे शहर में यूँ अकेले रहना पड़ रहा था। माँ की तरफ़ से ये फिक्र बिल्कुल लाज़िमी थी। अक्सर पूछे जाने वाले इस सवाल का जवाब द्विज अमूमन टाल ही देता था। पर आज जाने क्यों वो माँ को बताना चाहता था-

"क्या कहूँ और क्या बताऊँ? रोज ही ऑफिस से बाहर निकलते हुए हालत ये हो जाती है कि पूरा आसमान अंधेरे से घिर चुका होता है। और आज तो हद ही हो गयी। घड़ी में पूरे दस बज गये, तब ऑफिस से निकला और सुबह भी वापस आठ बजे जाकर कुर्सी पर चिपक जाना है।" बोलते-बोलते द्विज की जुबान ज़रा साँस लेने को क्या रुकी, माँ को बोलने का मौका मिल गया-

"अच्छा, फिर तो तू आराम ही कर और ध्यान रखना अपना।" बात पूरी करते-करते माँ ने सीधे कॉल काट दी।


आज द्विज पहली बार महसूस कर रहा था कि कैसे रोज ही माँ कितना कुछ अपने इस बेटे से कहना-बताना चाहती थी। पर रोज फोन की कॉल पर द्विज की मर्ज़ी चलती थी। और आज पहली बार माँ ने ज़रा सा ध्यान देकर संभवतः द्विज को समझाया था कि ध्यान रखने और ध्यान देने में क्या अंतर होता है!


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