उम्र-क़ैद
उम्र-क़ैद

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आवाज़ आज भी देता हूँ, तुम्हें सुनाई देती नहीं
मिलने की अब कोई उम्मीद दिखाई देती नहीं !
जीवन बिता डाला पूरा, जिसको हासिल करने में
मंज़िल तो अब दिखती है, राह सुझाई देती नहीं !
ज़ख़्मी जिस्म-ओ-ज़मीर की गुहार सुनाई देती है
रूह भी लहू-लुहान है पर कभी दुहाई देती नहीं !
गर फ़ितूर हो सहने का, दुःख अपनाना पड़ता है
इतना मज़ा कोई भी तकलीफ़ पराई देती नहीं !
उम्र की इस क़ैद में, ऐसे ही दर्द को जीना होगा
जब तक मौत ख़ुद आकर हमें रिहाई देती नहीं !