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Akshay Shukla

Others

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Akshay Shukla

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सुगंध

सुगंध

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घर के पीछे का कमरा

जिसमें है एक पुरानी अलमारी

जिसे खोलो तो 

उसमें से आती है एक

भीनी से सुगंध।


वो सुगंध

जो शायद 

हर घर के

किसी कमरे के 

किसी अलमारी से आती होगी।


वो जिससे सारा घर महकता है।

वो महक जिसके होने से

घर मे रौनक रहती है।


वो अतुलनीय है,

अनगिनत महक से मिलकर 

बनी है

वो एक सुगंध।


उसमे महक है

चौके में

बघार में डाले गए जीरे से

उड़े हुए तेल के छीटें की।

आटा गूंथते हुए

कमर में पल्लू खोंसते

उसमे लगे दाग की महक।


टी वी फ्रिज के ऊपर लगी धूल की

बालों में लगे तेल की

खाने की प्लेट पर लगी साबुन की

और है माथे से पोंछे पसीने की महक।


उसमे उस घाव की महक भी है

जो बचपन मे कभी मुझे लगा था।

और उस लार की

जो सोते में मेरे मुंह से बह निकला था।


ऐसी नजाने कितनी 

छोटी छोटी यादों की

महक से मिलकर

बनी है वो एक सुगंध।


वो सुगंध अपने आप मे

बताती है कहानी

उसके बनने में घटे

संघर्ष की।


जो आती है

उस साड़ी से जो

माँ पहनती है।


ये सुगंध कभी 

खत्म नहीं हो सकती

ये लगातार बनती रहती है

ये अनंत है

आत्मा की तरह।


साड़ी बदल जाती है

पीढ़ी बदल जाती है

माँ नहीं बदलती

ये सुगंध नही बदलती।


बस इकट्ठी होती जाती है

घर के आखिरी कमरे की

किसी पुरानी अलमारी में

जिसे जब खोलो

तो आती है उसमें से

एक भीनी सी सुगंध।



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