सत्यशाला
सत्यशाला
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कवि हूँ, लाया खूब तपाकर,
शब्दों, तर्कों की भाला;
पुष्प सच्चे को और झूठे को,
शूल लगेगी सत्यशाला !
जीवन की मदिरा में उलझा,
क्यूँ सहता रहता है ज्वाला?
एक तो तू है निर्बल इतना,
और विष- धर्म का जाला ।
जब तुम चाहो आओ द्वारे,
लेकर अपनी प्यास प्याला;
मैने तो दिन-भर, रजनी-भर
खोल रखी है सत्यशाला ।
तुम अपना सत्य मुझको दे दो,
सत्य की देखो मेरी माला;
कुछ तेरी, कुछ मेरी, दोनों की -
ऐसी है ये सत्यशाला !
