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आकिब जावेद

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5.0  

आकिब जावेद

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स्त्री हूँ

स्त्री हूँ

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आँचल में अपने अपनत्व, प्यार, ममता रखती हूँ

बचपन में भाई का ख्याल, बाबा को प्यार करती हूँ

हाँ मैं स्त्री हूँ।

थोड़ा जब मैं बड़ी हुई, बाबा ने डोली में बिठाया है

मन में अपने पत्थर रखकर अंगना बाबा का छोड़ी हूँ

हाँ मैं स्त्री हूँ।

जहाँ मैं बड़ी हुई, जिस अंगना में खेली हूँ

उसको छोड़कर पति के घर बिन सोचे आ जाती हूँ

खूब करती सेवा,पति को प्यार करती हूँ

ना कुछ कहती, घर दूसरा संभालती हूँ

हाँ मैं स्त्री हूँ।

आकर अपने पति के घर, यूँ घर को खूब महकाती हूँ

सास ससुर को अपना माना, माँ बाप समझती हूँ

हाँ मैं स्त्री हूँ।

अपने घर की राजकुमारी, बाबा की सहजादी हूँ

आकर पति के घर, पहले पति को मानती हूँ

घर के सब लोगो को खिलाती हूँ, फिर मैं कुछ खाती हूँ

हाँ मैं स्त्री हूँ।

जब बच्चे का जन्म होता, माँ की ममता बन जाती हूँ

खूब लाड करती हूँ, आँचल अपना महकाती हूँ

हमेशा दूसरों की सेवा करना यही बचपन से सीखी हूँ

हाँ मैं स्त्री हूँ।


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