समर्पण
समर्पण
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हवा बनके तेरे सांस में घुल रही हूं
मैं तुझमे थोड़ा थोड़ा पिघल रही हूं
मेरी अदा तो कबकी छूट गई मुझसे
अब तेरे लहजे में सबको मिल रही हूं
तेरी गोद में उछलती नदी सी बहती
अब शांत शीतल जल में बदल रही हूं
बुरा कहा लगता है अब किसी बात का
मैं तेरी यादों में खुदसे संभल रही हूं
मत तराशो कहीं और वजूद अपना
तेरे लफ्ज़ बनके कागज़ पर खिल रही हूं
तू जरा सा थम सा गया है ‘ स्वेत ’ मैं
मैं बनके गजल सदा तुझ मे चल रही हूं।
