सीता स्वयंवर
सीता स्वयंवर
पतित पावन है ये धरती, यहाँ सब लोग बैठे हैं ,
मनोहर दृश्य है देखो, त्रिलोकी नाथ बैठे हैं,
वरण है जानकी का आज, इस पावन नगर देखो,
धरा के भूप भी हैं और, भुवनपति राम बैठे हैं ।
है मन में द्वन्द सबके कि, धनुष मैं आज तोड़ूंगा,
जो फूलों से भी कोमल है, वरण सीता कर लूंगा,
सभी एक दूसरे को देख कर, खुद श्रेठ है समझे,
बिधाता ने लिखा क्या है, सभी अनजान बैठे हैं।
बड़ा समुदाय भूपों का, मगर संकोच पनपे है
हज़ारों दस हैं बलशाली, मगर संदेह बढ़ते हैं
नहीं काबिल कोई दिखता, यहाँ राजा जनक जी को,
द्वंद की बाढ़ उमड़ी है, भूप खामोश बैठे हैं।
समय है बीतता जाता, नहीं परिणाम हांसिल है,
हज़ारों थक गए हैं और, हज़ारों हाथ बाकी हैं,
निकट है आ रही वो शुभ घड़ी, जब सीता परिणय हो,
हैं फिर भी तीन पत्ते ढाक के, मझधार बैठे हैं।
जनक हैं गुस्से में बैठे, और धिक्कारते सबको,
धरा खाली है वीरों से, यही अफसोस है मुझको,
लौट जाओ सभी अपने, अपने घर को तुम सारे,
सभी बलहीन हैं, निर्लज्ज और बेकार बैठे हैं।
खड़े होकर लखन ने राम की आज्ञा को ध्याया है,
कृपा हो राम की तो, क्या धनुष हो या हिमाला है,
मैं चकनाचूर कर दूं पल में इसको, पर धर्म रोके है,
नहीं मेरी अभिलाषा है, जब भईया राम बैठे हैं।
चलें है राम तो मानो कि कोई मस्त हाथी है,
नहीं अभिमान है दिल में, ये तो करुणा के साथी हैं
सहज ही तोड़ दी धनु को, सभा के बीच में प्रभु ने,
हर्ष जागा जनक के मन में, और चित शांत बैठें हैं।
नयन देखे, वंदना मात की सीता ने साधी है,
माना एहसान माता का, दिया मनवांछित साथी है
हुआ सम्पन्न सीता का, मधुर परिणय सूत्र बंधन,
जगतमाता और प्रभु राम जी एक साथ बैठे हैं।
