श्रमिक
श्रमिक
चौराहे पर सुबह सुबह, कुछ भीड़ एकत्रित होती है,
मजदूरी पाने की तलाश में, उम्मीद लगाए रहती है,
कुछ को मिलता काम मगर कुछ वापस लौट जाते हैं,
कैसे जलेगा चूल्हा आज, सोच व्याकुल वह हो जाते हैं,
महिलाएं भी नन्हे शिशुओं को, गोद में लेकर आती हैं,
आरंभ से ही, कठिनाइयों से लड़ना उन्हें सिखलाती हैं,
सर्दी, गर्मी या हो बारिश, झोपड़ी में वह रह जाते हैं,
बहाकर दिन में स्वेद, खुले आसमां के नीचे सो जाते हैं,
कीचड़ मिट्टी से सने हाथ, इनका कभी ना अपमान करो,
वह हैं तो सब सुविधाएं हैं, इस बात को आत्मसात करो,
उनकी मेहनत के दम पर, कितने ही सुख हम उठाते हैं,
किंतु उन्हें तो केवल, दो वक्त की रोटी ही हम दे पाते हैं,
श्रमिक ना होते तो, कठिनाइयों से भरे हमारे रास्ते होते,
सुकून और आराम के पलों के लंबे हमसे फासले होते,
हमारी अनगिनत जरूरतें, श्रमिकों का महत्व बताती हैं,
फिर भी मजदूरी देते वक़्त, काटकसर क्यों की जाती है,
चले जाएं हड़ताल पर वे, कारखानों में ताले लग जाते हैं,
मजदूरों के बिना, रुकी मशीनों के पुर्जे जाम हो जाते हैं,
उनके काम न करने पर, बड़े-बड़े राष्ट्र ठप्प पड़ जाते हैं,
श्रमिकों के बिन, हम जीवन की कल्पना नहीं कर पाते हैं।
