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सहेली

सहेली

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तुम्हारे माथे पर पड़ी ये झुर्रियां 

यूँ लगता है जैसे

उन्नत हिमालय को काटकर 

बह रही है बीसियों नदियाँ

तुम्हारे ये अनगिनत सफ़ेद बाल

यूँ लिपटते है तुम्हारे चेहरे से

ज्यों किसी प्रकाश पुंज पर 

बिखरे पड़े हो धवल रेशे

तुम्हारी आँखों के चारो और बन गए है काले घेरे

ठीक वैसे ही जैसे चाँद को घेरे हुए हो

चांदनी का वृत्त

तुम्हारी उफनती छाती से खीँच लिया है

तुम्हारी कोख ने दूधिया सोना

न वो कमर की लचक

न नितम्बो की थिरकन

तुम्हारी जांघे जो कभी देवदार थी

अब जूना सागवान लगती है

कभी स्वर्णआभा थी तुम

अब महज़ मिट्टी हो

मगर इस मिट्टी में अब भी लहलहाता है

मेरी प्रीत का पौधा

मेरी आँखों को अब भी सुहाता है तुम्हारा चेहरा

फिसलती उम्र के बाद भी

बिल्कुल नया हूँ मैं अब भी

और तुम

अब भी कोई नवयौवना लगती हो

मेरे बचपन की सहेली


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