साकी कहता है कि मरहम है शराब
साकी कहता है कि मरहम है शराब
साकी कहता है कि मरहम है शराब।
जख्म हर बार मेरे, हरे हुए हैं जनाब।
कौंध दे बिजली मेरे पैमाने में साकी,
इसके बिना अधूरे हैं मेरे अल्फ़ाज़।
नादां से इस दिल में ढेरों जज़्बात हैं,
आब-ए-तल्ख़ सोख्ता है इसे जनाब।
भीगी बरसात में मेरी बुझी नहीं प्यास,
ओर भी बढ़ गई है तिश्नगी बेहिसाब।
सरुर-ए-नूर या कहूं तुझे हूर-ए-ख्वाब,
मदहोश किये जा रहा है मुझे तेरा शबाब।
वफ़ा नजर आती है सिर्फ मैयखानों में,
वरना वफ़ा का दम भरती है किताब।
कितना जी लिए और कितनी पी गए,
न पूछ ऐ जिंदगी ! कोई हमसे हिसाब।
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आब-ए-तल्ख़=कड़वी शराब
सोख्ता=समझना
तिश्नगी= प्यास