रधिया रानी
रधिया रानी
दिनचर्या के गुणा-भाग से
रधिया ने नवगीत रचा।
जाग, जगा प्रातः तारे को
प्रथम सँभाली कर्म-कलम।
भरी विचारों की स्याही
चल पड़ी उठा लयबद्ध कदम।
लेखा-जोखा घर-घर का था
रहा हृदय में द्वंद्व मचा।
श्रम बूँदों के रहे बिगड़ते-
बनते चित्र कवित्त भरे।
अक्षर-अक्षर रही जोड़ती
रधिया रानी धीर धरे।
धार-धार धुलते भांडों पर
दो हाथों को नचा-नचा।
ढला दिवस, खींची लकीर
पर गीत अधूरा है तब तक।
जोड़-तोड़ कर पूरा होगा
घर का गणित नहीं जब तक।
लिख देगी अब रात नींद ही
जो कुछ भी है शेष बचा।