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हरीश कंडवाल "मनखी "

Others

4.5  

हरीश कंडवाल "मनखी "

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राख /खाक

राख /खाक

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जिंदगी एक रंगमंच

हर कोई इसका पात्र

जनम लेते ही उठता

नाटक का पर्दा,

नाल कटते ही,

रोने की आवाज से 

दर्शक दीर्घा में कराता

अपने अस्तित्व का अहसास। 


चुबंन, प्यार, पुचकार

घर में सभी का दुलार

नामकरण से आगे बढता

घुटनों के बल सरककर

मिट्टी में खेलकर

बचपन की भूमिका अदा करता। 


इसीं रंगमंच में स्कूल जाकर

दो आखर सीखकर बालक बनता

नये सपनों के साथ किशोर

बनकर अपनी दुनिया को सजाता। 


दूसरे दृश्य का पटाक्षेप होता

घर गृहस्थी से एक नये

नाटक को फिर से जनम देता

यहॉ बहुचरित्र निभाता । 


अपने, पराये, दुश्मन,

ईमानदार, भ्रष्टाचार,

चोरी, झूठ, सच्च 

लालच, संयम, कर्मठ

इन सबको पर्दे पर जीता । 


एक दिन फिर सब देखकर

जीवन के रंगमंच में 

देह इस दुनिया को देकर

अनन्त शून्य में विलीन हो जाता। 


दुनिया के रंगमंच पर पड़ी 

यह देह आग में भस्म हो जाती

जीवन का अतिंम यह अभिनय

बस एक मुठी राख बनकर

अंत में पर्दे पर बिखर जाता। 


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