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हिमांशु उनियाल पण्डित

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4.3  

हिमांशु उनियाल पण्डित

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पुञ्ज

पुञ्ज

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हो गया है दुःख अमावस की रात सा घना

खुशियों के दीप से इसे रोशन ज़रा सा कर दो

इक दिया है इक अँधेरी रात है घनी बड़ी

दोनों में से जीते जो वो आस है सबसे बड़ी

देखना है दीये के आगोश में खो जाये रात

या दीया इस रात के आगोश में खा जाये मात

अपना अपना मर्म है भयभीत या भयहीन हो

वक्त सबका आएगा बुरा आज तो कल हो भला

निशाकर लाचार है जो आज अपने मार्ग पे

आएगा लेकिन वही कर जायेगा रोशन जहाँ

प्रेरणा ले उस शशि से दीप बनकर आ यहाँ

पुंज है तुझमें प्रकाशित ढूढ़ता तू फिर कहाँ

ढूढ़ता तू फिर कहाँ....।


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