"पतंग "
"पतंग "
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प्राण धारणा के शब्द मेले में मैं एक नन्हीं सी मुसाफिर ,
अपने जिस्म की महक से ,मेरी हस्ती को बतलाती फिर ।
दिल की आरजू पर कोई रखे तराजू यह मुझे स्वीकार नहीं ,
जिन्दगी में रंग भर , मैं देती आकार ।
नील गगन में हैं मेरा आशियाना ,
पंखों में उड़ान भर मुसीबतों से करना है सामना।
आकाश में उड़ान से न मैं डरती ,
दिल के ज्जबातों को मैं बयाँ हूँ करती ।
मंजिल दूर पर सपने को है पाना ,
खेल में सर्वप्रथम है आना ।
गगन को शब्दों की पहनाती मैं माला ,
मैं पंतग आओ तुम्हें दिखती मेरी कला।