प्रवृत्ति या निवृत्ति
प्रवृत्ति या निवृत्ति
कैसे महज़ एक वृत्त की परिधि में सिमटे हुए हम फिर भी;
अपने लिए...ना जाने सारा ब्रह्माण्ड क्यों पा लेना चाहते हैं;
कितने भीतरी हो जाते हैं...आकाशगंगाओं जैसे चुंबकीय आकर्षण लिए;
बिना कुछ किये ही...हर मानस पटल पर अपनी ही छाप चाहते हैं;
जबकि अंतर्मन में उदय-अस्त होते रहते हैं..सूर्य-चन्द्र जैसे मनोभाव;
बड़ी ही सहजता से दुख-सुख भी...मौसम से करवटें बदलते जाते हैं;
महसूस हुआ...कारण है गोल घूमते वृत्त में सिमटा हुआ अपना जीवन;
हर वक़्त उन्मादी मिथक छल करता...जैसे चालें चलना जानता है;
भावों की अभिव्यंजना भी पा लेती है एक रहस्यवादी कुटिल मुस्कान;
मन मारकर फिर संताप भर...घुल जाना चाहते हैं स्वयं में जलते हम;
अवतरित होने लगता है...अगनित भार लिए अगरू लगता ब्रह्मांड;
गूंजता कहीं एक मूक नाद और अदम्य प्रकाश पुंज...सापेक्ष और सतत;
वहीँ कहीं किसी छोर पर...ठहरे अन्धकार को निगल जाने;
मृदु गति से ईश्वर विचरते हैं...मधुर स्वर में गीत लगते हैं गाने;
होता है एक तांडव प्रेम और द्वेष के बीच पैदा करता है महाविस्फोट;
फिर उलझ जाती है सृष्टि दो शाश्वत तत्वों के मध्य क्रीड़ा करती;
विस्तारित होने को आतुर...मोह में पूर्णतः लिप्त होती ही जाती;
उत्पत्ति-विनाश के वृत्तिय चक्र में...फिर फंसकर रह जाते हैं;
नियति का एक खेल समझकर समरसता से अपनाते जाते हैं;
स्वतः छूट जाते हैं अनगिनत उद्गारों के सूक्ष्म कण ...बिंधे स्थूल काया से;
पा लेते हैं ब्रह्म...अपनाकर सांसारिक कामनारहित प्रवृत्ति और वासनारहित निवृत्ति!