पिता की याद संग
पिता की याद संग
क्या बताऊँ कितना टूटा हूँ
अंदर से कितना मरा हूँ
रोज एक याद मुझ को रुलाये
ह्रदय में बसा एक बचपन मुझ
को सताये !
पिता की गोद में जब-जब रोया था
तब-तब आँगन की खाट पर सुलाये,
उन्होंने अपने सीने से मेरी आँसू को
किसी मोती-सा समझ संजोया था !
बचपन ही तो पिता संग जी सका था
जवानी आने से पहले ईश्वर ने मुझसे,
मेरा छांव, अनुशासन दोनों छीना था
माँ का सुहाग, बहनों का जान पिता
चल बसे थे
अल्प आयु में हम अनाथ हो गए थे
पिता के छाँव से वंचित रह गए थे
अब नहीं थे वे जिनके सीने से
लिपट जाऊँ
सारे ग़म, सारे असफलताएं उनसे
कह जाऊँ !
मानता हूं अनगिनत तारों के झुंड
से अकेले,
आज भी मुझसे वह बातें करते
आ रहे हैं
आज भी जब दुखी होता हूं, दुनिया
के भीड़ से
तब आज भी वह रोज़ सपनों में
मुझ को सुलाते रहे हैं !
पर, मैं उन्हें बस सपनों में देख लिपट
जाया करता हूँ
सपनों में ही फूट-फूटकर रोया
करता हूँ
पिता के संग सपनों में ही जवानी
जी लेता हूँ,
गर नींद टूटी कहीं तो फ़िर पिता से
कहीं दूर हो जाता हूँ !
बेचैन मन से बस उन्हें ढूँढता रहता हूँ
कहीं अंधेरी गुफ़ा दिल में पड़ी हैं
उसी से लड़ता-झगड़ता रहता हूँ
पिता की ताक में सोने से ज़्यादा,
मन की गुफ़ा में कहीं जागता रहता हूँ
उस वीरान-सी गुफ़ा में कभी खो जाता हूँ
कभी ख़ुद को पाते ही, फ़िर रोया करता हूँ !
क्या बताऊँ कितना टूटा हूँ
अंदर से कितना मरा हूँ