पिता- एक खुली किताब
पिता- एक खुली किताब
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खुली किताब सा उसका जीवन
पढ़ने को मन करता है
दिल दिमाग में हलचल करता
दिन-रात मेहनत करता है।
हर दम हर दर्द खुद में समेटे
ना जिक्र किसी से करता है
खुशियो में किसी की कमी ना आए
अपने पूरे करतब करता है।
दिल पर अपने पत्थर रख
सख्त फैंसले करता है
तरक्की की सीढ़ी चढ़े हम सब
रूखा व्यवहार भी करता है।
परछाई बन संग में चलता
कुम्हार के जैसा बनता है
ऊपर से हमें चोट तो देता
मन-धन से सहारा देता है।
क्या किया बच्चों की खातिर
प्रश्न हर शख्श उनसे करता है
त्याग, बलिदान उसका भूलकर
कटाक्ष भयंकर करता है।
