फ़िल्म
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फ़िल्म लगती है अक्सर
जैसे खुद के जीवन जैसी है
नायक, नायिका, सुंदर संसार
खुद को नायक समझ करते हैं
अनुभूति बसा लेते हैं पटकथा के इर्द गिर्द दुनिया
जिसमें हर पल हसीन और खुशनुमा
तीन घंटे बीतते ही खत्म होता है तिलिस्म
धीरे धीरे ओझल होने लगता है सब कुछ
रह जाती है पहले जैसी जिंदगी
जो है फिल्मों से खूबसूरत।