पगड़ी उछलती है
पगड़ी उछलती है


पगड़ी उछलती है
केवल और केवल आदमियों की
अब वो आदमी हो सकता है
एक बाप
एक भाई
एक पति
या फिर एक ससुर
साधकर, डांटकर , सम्भाल कर
मजबूती से बंधी पगड़ी
हवा से नहीं उछलती
न अपने आप से
बन्दर या खरगोश के मानिंद
उछल सकती है
फिर भी
उछलती है पगड़ी इसलिए
जब पगड़ी उछले
तो जबतक
उछालने वाला न मिले
तब तक कहानी अधूरी है मेरे दोस्त
तो
पगड़ी उछालती है
सिर्फ और सिर्फ औरत
अब वो औरत हो सकती है
एक माँ
एक बहन
एक पत्नी
या फिर एक बहू
ये जघन्य निंदनीय कर्म
नित्य वन्दनीय आदमी
अव्वल तो कर ही नहीं सकता
फिर भी कहीं अपवाद दीखता है
तो उसके पीछे
होती है
नैसर्गिक चंट-चालाक-कपटी
यानि औरत की सीख-शह
जिसके वशीभूत
स्वाभाविक सीधा भोला परम
पावन शुभ विचारी प्रेमिल
यानी आदमी
नितांत अनिच्छा से भय से
मजबूरी वश
करता है उपरोक्त क्षम्य अपराध
इस नित-नवीन चिर-पुरातन
कथा के बीच
ये बात दीगर है
कि
औरतें
नहीं पहनती पगड़ियाँ
भले वो औरत हो
एक माँ
एक बहन
एक पत्नी
या फिर एक बहू
औरतें
नहीं पहनती पगड़ियाँ एक
पगड़ी धर आदमी
की मौत के बाद
पगड़ी धरता है दूसरा आदमी
मैं सोचता हूँ
औरत की पगड़ी भी उछलती
अगर वो पहनती पगड़ी
पर
मैं जानता हूँ
एकदिन आएगा
जब औरतों के सिर पर भी
पगड़ियाँ होंगी और
उस दिन नहीं उछ्लेगी
कोई पगड़ी अभी
यहां तक पहुँचते
दुनिया को देर है
पर बहुत देर नहीं