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पड़ाव

पड़ाव

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विचार हाथों की लकीरें मिला दें,
कुछ भी अप्राप्य नहीं,
पर रिश्तों के बिखराव का क्या?
कल्पना किनारों को मिला दे,
कुछ भी असंभव नहीं,
पर ठहराव के मंज़र का क्या?
सब कुछ तो पा लिया,
शेष कुछ बचा दिखता भी नहीं,
पर उम्र के अंतिम पड़ाव का क्या?
जीने के लिए रोज़ मर रहे थे,
अब मरने के लिए जीना भी तो नहीं,
पर विकर्मों के बोझ का क्या?
ये किन-किन गलियों से गुज़र आया ए मेरे खुदा,
था मैं इतना अनजान भी तो नहीं,
अब जिंदगी के शून्य से गुणा होने का क्या?


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