नया छंद बनाता हूँ
नया छंद बनाता हूँ
जब भर जाता आंखों तक हूँ,
जब छल-छल छलका करता हूँ,
जब जीवन-मृत्यु बीच झूलता,
जीता हूं, ना मरता हूँ,
तब स्रष्टा को सम्मुख पाता हूँ।
तब इक नया छंद बनाता हूँ।
जब उड़ता-फिरता बिना बंध,
ज्यों फिरता ये मन हो स्वच्छंद,
निज होने को जाता मैं भूल,
जब जीवन लगता मात्र धूल,
तब मुक्त-कंठ मैं गाता हूँ।
तब इक नया छंद बनाता हूँ।
जब सोचूँ, क्यों मैं जीता हूँ?
प्याले अपमान के पीता हूँ,
जब दिल-दिमाग का मेल ना हो,
जीऊँ या मरूँ, अब तुम ही कहो,
अभागे अश्रु व्यर्थ बहाता हूँ।
तब इक नया छंद बनाता हूँ।।
तब स्रष्टा को सम्मुख पाता हूँ।
तब इक नया छंद बनाता हूँ।