नारी मन
नारी मन
सबसे दूर
अपनी रूह से दूर,
औरत अपने अस्तित्व,
की तलाश में,
खोजती रहती है,
कुछ अनजाने पथ।
कहीं ना कहीं,
दिल में एक आस लिए
अधूरे पन को मिटाते हुए,
ढूंढती रहती है राह,
इधर-उधर वह,
अनंतकाल तक ।
हर औरत के,
अंतर्मन का यही,
एक किस्सा बन,
उसको अंदर ही अंदर,
व्यथित करता है,
फिर भी होती है असमर्थ ।
जीवन पथ की,
पगडंडियो पर चलते हुए,
अपनी जीवन यात्रा को,
बनाना चाहती है सुखद,
मन की अंतस यात्रा में,
करती रहती है अंकन ।
कोमल मन में भरी,
भावनाओ को काश,
कोई समझ ले,
कोई तो आकर
मेरे दिल में झाँक,
कायम रख पाता मेरा अस्तित्व ।
कोई तो प्यार से,
मेरे समीप बैठकर,
मेरे वजूद के लिए,
मेरे नारीत्व को,
मान सम्मान को,
स्थिर रख करता नमन ।
सृष्टि का सृजन को,
मैं ही कोख में रख ,
जीवन्त करती हूँ,
पीड़ा सहकर जननी बन,
सृष्टि को अपना,
सब कुछ करती हूँ अर्पण ।
माँ बन घर को ,
जीवन का आधार दे,
सर्वस्व न्योछावर कर,
जिदंगी व्यतीत कर मैं,
गृहस्थी की गाड़ी को,
चलाती हूँ अनवरत ।
उम्र के पड़ाव में,
जब मै भी ढलने लगती हूँ,
मेरी सांसें चलती हैं,
मद्धम मद्धम तब,
अपने बच्चों का प्यार,
पाने हेतु रहती हूँ विलग।
स्त्री मैं होती हूँ
पूर्णतया समर्थ फिर भी,
ढल जाती हूँ,
रिश्तों के बीच में,
बिठाने का करती हूँ
एक अदना सा प्रयास ।
और फिर से,
खो जाती हूँ अपने,
मन के अंतस में,
जहाँ मिलता है,
मुझको सुकून ही सुकून,
और पूरी हो जाती हैं मेरी तलाश ।।
