मूर्तियां
मूर्तियां
मैं रोज़
मूर्तियां बनाती हूं
उन्हें तराशती हूं
रंग भरती हूं
सजाती हूं
संवारती हूं
उनमें भर देती हूं
अपने आपको
फिर एक दिन
बेचा आती हूं बाज़ार में
बदले में पाती हूं
केवल दो जून की रोटी
अपनी -
भावनाएं
इच्छाएं-आकांक्षाएं
कल्पनाएं
और अपना अस्तित्व
साथ ही अपना पूरा आलम
चढ़ा देती हूं रोटी को
इसी तरह मेरा सबकुछ
रोटी की भेंट चढ़ जाएगा
मेरी उंगलियां थकने लगेगी
मेरी आँखें देखना बंद कर देगी
मेरा आप ही
मुझ को खाने लगेगा
तब ये मूर्तियां
मेरे कानों में कुछ कहकर
धत्ता देती हुई
दूर चली जाएंगी
फिर भी मेरे दामन से
लिपटी रहेंगी
और मैं इन्हें ढूंढती रहूँगी
लेकिन ये तो
किसी और की
भावनाओं
इच्छाओं-आकांक्षाओं को
अस्तित्व को दबोचती
पूरे आलम को झुठलाती
सज-संवरकर
बिकने को आतुर
बतियाने लगेगी मुझसे ये मूर्तियां
जिन्हें मैं रोज़ बनाती हूं !
