Zahiruddin Sahil
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मजबूर बुढ़ापा
आज भी गलियों में धूल फांकता है
अब भी
कोई मासूम
किसी होटल पे गाली खाता है
अच्छा है के
हम
तरक्की के गीत गाते रहें
मगर....
कुछ फ़टी जेबों से
हिंदुस्तान का
मुस्तक़बिल झाँकता है !!!!!
सुबह
रंग ए वतन
भेज भइया को ब...
आशियाना
अमल
इशारों क...
बुलावा
पैगाम
आँगन
होने से