मुगालता
मुगालता
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हैं मायूस बेहद आज, अपनी ही नज़रों में हम।
कि हुए मुज़रिम भी हम, और मक्तूल भी हम।
रखा था दिल में आपने, शायद हमें मदहोशी में,
खूबसूरत उस मुगाल्ते में, बेज़ा ही पड़े रहे हम।
हाँ दोस्ती में इश्क़ के, घाव से बेहद शर्मिंदा हम।
किस मुंह से कहें हैं बेज़ार खुद से ही आज हम।
