मन वीणा के तार बसंती
मन वीणा के तार बसंती
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मन वीणा के तार बसंती,
ढीठ हवा ने किस दिन छेड़े।
स्मृति की मंजूषा में संचित,
केवल लू के गर्म थपेड़े।
पथ के शूलों को शोणित की,
रोली से रंगता मैं आया।
बनकर सपनों का अन्वेषी निज,
मन को ठगता मैं आया।
कविता का वरदान विधी ने,
मेरी झोली में क्या डाला।
और नेमतों से जगती की,
जीवन को वंचित कर डाला।
वर रूपी अभिशाप उठाये,
निज पापों को माँज रहा हूँ।
तुम कहते हो ज्योति जगाता,
मैं तो काजल आँज रहा हूँ।
