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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

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मन मोहक धुन

मन मोहक धुन

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नीड़ नीरव में बजी बाँसुरी

धुन थी प्यारी-प्यारी

सुध-बुध खो बैठी जैसे

कोई सजीली कन्या कुमारी। 


हो विह्वल बजा रहा था धुन न्यारी

खोई-खोई सुधा में बैठी थी प्यारी

रुको अब तो बस करो तुम

छेड़ो न तुम ये स्वर भारी-भारी।


कहीं बिलग हो उड़ जाता मन मेरा

वीरानों का खंडहर भी मन को भाता

अज्ञात विरह वेदना की सुर-धुन पर

अंतःमन मेरा विकल-विकल हो जाता। 


धीरे-धीरे सूरज चला क्षितिज की ओर

अस्तमनबेला पुकारती चहुँओर

डूब रहा दिनकर अब तो

छेड़ो न तुम ये सुर-धुन की डोर। 


अरे निबोही अब तो छेड़ो टेर

विकल विह्वल है मन की डोर

सुर-सरगम की खींचो तान

बाँसुरी की धुन पर अब तो तार। 


आह! अब तो बजाओ वेणु

कण-कण तरस रहा मन-रेणु। 


अंतस् अब तो अकुलाता है

सुनने को मचलता घबराता है

उर पल-पल मरता जीता है

सुनने को बस तरसता है। 


रंग दो मुझको धुन बेदना-सी

डूबूँ-उतराऊँ तन भेदना-सी।



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