मन मोहक धुन
मन मोहक धुन
नीड़ नीरव में बजी बाँसुरी
धुन थी प्यारी-प्यारी
सुध-बुध खो बैठी जैसे
कोई सजीली कन्या कुमारी।
हो विह्वल बजा रहा था धुन न्यारी
खोई-खोई सुधा में बैठी थी प्यारी
रुको अब तो बस करो तुम
छेड़ो न तुम ये स्वर भारी-भारी।
कहीं बिलग हो उड़ जाता मन मेरा
वीरानों का खंडहर भी मन को भाता
अज्ञात विरह वेदना की सुर-धुन पर
अंतःमन मेरा विकल-विकल हो जाता।
धीरे-धीरे सूरज चला क्षितिज की ओर
अस्तमनबेला पुकारती चहुँओर
डूब रहा दिनकर अब तो
छेड़ो न तुम ये सुर-धुन की डोर।
अरे निबोही अब तो छेड़ो टेर
विकल विह्वल है मन की डोर
सुर-सरगम की खींचो तान
बाँसुरी की धुन पर अब तो तार।
आह! अब तो बजाओ वेणु
कण-कण तरस रहा मन-रेणु।
अंतस् अब तो अकुलाता है
सुनने को मचलता घबराता है
उर पल-पल मरता जीता है
सुनने को बस तरसता है।
रंग दो मुझको धुन बेदना-सी
डूबूँ-उतराऊँ तन भेदना-सी।
