मन मलंग
मन मलंग
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नित घूमती
एक ही धुरी पर
धरा ज्यूँ
काटती
अपने ही
सूरज के चक्कर
नित्य-निरन्तर
कब दिन चढ़े
कब रात ढ़ले
न अनजान
न बेखबर
फ़िर भी
संस्कारों की
धुरी पर
परिवार के
इर्द गिर्द
निरन्तर
परिभ्रमण करते
कभी-कभी
किसी पल
सुन कोई अनसुनी
बाँसुरी की धुन
हो जाता है
मन मलंग
चढ़ जाता है
मटमैले दुपट्टे पर
कोई राता रंग
और बस वो एक पल
जाने कितने पल
कर जाता है
सुनहरे- रुपहले...