STORYMIRROR

Rajeshwar Mandal

Others

4  

Rajeshwar Mandal

Others

मन की पीड़ा

मन की पीड़ा

1 min
347

जब जब दिखा मंजिल निकट

समस्या खड़ी हुई विकट

कैसे प्रवाहिनी पार करुं मैं

बिन नाव बिन केवट


शहर था छोटा सफर बड़ा था 

चांदनी रात पथ कंकड़ भरा था

थका नहीं था चलते चलते

पर मन रुकने पर अड़ा था

देखा गौड़ से नीचे

तो पांव छाले पड़ा था

जब जब दिखा.........


जितने भी सहचर मिले

सब छल प्रपंच से भरे मिले

बातें तो मीठी करते थे

पर नजर गड़ाए कहीं और दिखे 

चाल धीमी करते ही

कुछ आगे बढे कुछ पीछे हटे

अंतर्मन ने आवाज दी

दूर हटो दूर हटो

वो राही है सहचर नहीं सहचर नहीं

जब जब दिखा.......


मंजिल की लालिमा दिखने ही वाली थी

पर पांव बोला अब और नहीं अब और नहीं

रहने दो कल चल लेंगे

सहचर छोड़ गये तो क्या

हम अकेले ही सफ़र कर लेंगे

वो कौन सा मेरा सहारा था

भले ही कद काठी में धनवान थे

पर प्रगति पथ के व्यवधान थे


फिर अंतर्मन ने कहा

इच्छाओं का दमन कर लो

गंतव्य का सीमांकन कर लो

छोड़ मोह अत्यधिक की

पहले खुद को खुद में ढुंढ़ लो

देख शत्रु समक्ष

कछुए की तरह वाह्य अंग समेट लो

भले ही लोग कुछ कहेंगे

पर विस्फोट करा दो

अंतर्मन की पीड़ा को सरेआम

ठीक अनपचे अन्नो की वमन की तरह

जब जब दिखा...


Rate this content
Log in